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________________ बंधुओ! इतना ध्यान रखना कि मोहनीय कर्म और उससे उद्भवित समस्त विकारों में मिथ्यात्व ही कारण भूत होता है। हमारा नित शरीर, रिश्ते आदि का ममत्व इसी कारण हुए। यह मिथ्यात्व की ही बलिहारी है कि हम अनेकांत दृष्टि को भूलकर एकांत दृष्टि में फंसते जाते हैं। (पृ० 12-13 का वर्णन) कुबुद्धि के कारण हमारा वाणी का संयम भी हमें किसी जन्म में भाजीमण्डी का कुँजड़ा बना सकता है। (पृ० 15) आचार्य बड़े ही सुन्दर उदाहरण से समझाते हैं कि चाहे चंदन की लकड़ी हो या बबूल की अग्नि तो दोनों को जलायेगी और दोनों की लपटें हमें भी जला सकती हैं। काषायिक भाव चाहे कर्म के क्षेत्र में करना तब भी तेरा नाश होगा और धर्म के क्षेत्र में करेगा तब भी नाश तेरा होगा। क्योंकि धर्म का नाम अकषाय भाव है और जहाँ कषाय भाव है वहाँ धर्म नाम की वस्तु है ही नहीं। (पृ० 16) आचार्य कहना यह चाहते हैं कि सम्यग्दृष्टि या सच्चे ज्ञानी को अन्य सारे परिकर नहीं दिखेंगे वह तो पूजा में लीन हैं जबकि मिथ्यात्व से प्रेरित जीव पूजा के अलावा सब कुछ देखेगा । यद्यपि वह पूजा कर रहा है। हम तो भगवान् को भी पुनः धरती पर बुलाकर अपना दर्द बताना चाहते हैं, जो सम्भव नहीं। (पृ०17) फिर अब भगवान की भक्ति भी फीकी हो गयी। गंदी फिल्मों की धुन पर हम आदिनाथ, महावीर, पार्श्वनाथ, आ० विद्यासागर जी व आ० विशुद्ध सागर जी को बुला रहे हैं। मैं पूछता हूँ कि जब आप उन धुनों को गाते हैं तब क्या आपको सिनेमा का वह गंदा दृश्य नजर नहीं आता? कहीं आप भगवान् के नाम पर फिल्मी धुने गाकर अपनी अन्दर की छिपी वासना की तृप्ति तो नहीं कर रहे? मिथ्यात्व की यह सबसे बड़ी करामात है कि वह नश्वर देह को अपना समझने की गलती करवाकर आत्मा के सत्य से अवगत नहीं होने देता। देह की नश्वरता से आँख-मिचौनी खिलवाता है (पृ० 23) मैं किसी का पालन करता हूँ या मुझे कोई पालता है यह भी मिथ्या मान्यता है। अहम् का पोषण, धन का अभिमान सभी प्रकार के पद इसी मिथ्यात्व के कारण व्यक्ति में पनपते हैं। मेरे पन की वासना या ऐषणा ही सभी दुखों की जड़ है। (पृ० 28) किसी भी कार्य को न करने के लिए हम बहाना ढूँढ़ते हैं फिर चाहे वह दीक्षा लेने का भाव ही क्यों न हो! (पृ० 29) वर्तमान में हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे कतिपय साधु मंत्र-तंत्र, डोरे-धागे, कालसर्प योग आदि का भय बताते हैं। सर्प का प्रतीक बनवाकर पानी में तर्पण करवाते हैं क्या यह भाव हिंसा और घोर मिथ्यात्व नहीं? क्यों प्रबुद्ध श्रावक और सच्चे मुनि उनका विरोध नहीं करते? अरिहंत का भक्त तो निर्भीक – स्वाभिमानी होता है। वह चमत्कारों से भयभीत या उससे प्रभावित नहीं होता । यह वर्तमान काल में मिथ्यात्व की तबसे बड़ी करामात है कि उसने जैन धर्म को अनेक पंथों, उपपंथों स्वरूपदेशना विमर्श (143) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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