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________________ कि यदि साधु स्थान-मोही हो जाये तो उसकी निर्मलता मलिनता में बदलने लगती है। साधक को कोई विषय कठिन नहीं होता पर मिथ्यात्व के कारण सभी ओर कठिनाई लगती है, फिर चाहे वह दिगम्बर दीक्षा, विहार, चर्या ही क्यों न हो । (पृ० 2) बड़े ही उत्तम शब्दों में इस मिथ्यात्व की उस करामात पर प्रहार किया है जो श्रद्धा में छेद कराता है। "ध्यान रखना, कपड़े में छेद हो जाये तो कोई विकल्प मत करना,शरीर में छेद हो जाये तो कोई टेंशन नहीं लेना, परन्तु श्रद्धा में छेद न होने पाये” विश्वास में छेद नहीं आना चाहिए । (पृ० 3) वट्टकेर स्वामी तभी तो कहते हैं“पिय धम्मो, दृढ़ धम्मो” अर्थात् प्रेम किसी से हो, तो धर्म से हो । पर आज की विडम्बना यह है कि व्यक्ति का धर्म से प्रेम छूटता जा रहा है, या लो वह स्थूल देह, भोगों में सुख ढूंढ़ता है या फिर धर्माभास में जी रहा है। वह “मण्डन से अधिक खण्डन” में लगा है। जैन धर्म की रीढ़ की हड्डी में श्रावक के षट् आवश्यक एवं रात्रि भोजन का निषेध, पानी छानकर पीने का समावेश है, पर यह मिथ्यात्व की ही करामात है कि आज आदमी कहता है कि "हम रात्रि भोजन नहीं छोड़ सकते। आज जैसे धर्म की क्रिया पालना एक मजाक बनता जा रहा है। मैं इस ग्रंथ से बाहर निकलकर एक बात आप सबसे और स्वयं से पूछता हूँ, कि पू० आचार्य श्री के इतने अमृत प्रवचन हमने सुने-हमारे अंदर वे कितने फलीभूत हुए? मैं तो आचार्य श्री से पूछंगा कि इतने प्रवचनों का श्रवण कराने के बाद कभी आपने जानने की कोशिश कि “पत्थर पर कितने निशान बने?” मेरी दृष्टि से प्रवचन सुनकर प्रभाव न होना इसमें मिथ्यात्व की भूमिका अधिक प्रबल है। देखिए यह काल का प्रभाव जो मिथ्यात्व का काल बन रहा है उसमें “हर दस बारह लोगों के बीच एक देवता आ गया, क्योंकि पंचमकाल में भगवान बनने और देवता लाने में कोई देर नहीं लगती। लेकिन ये झूठे देवता आ गये। लोग तत्त्व से भ्रमित हो गये हैं। देवी-देवताओं के नाम पर और जादू होने के नाम पर तीर्थंकर के शासन की शक्ति को महसूस नहीं हो रही । मन्दिर में भगवान् की पूजा करेंगे और चबूतरे पर जाकर जाने क्या करेंगे? देव मूढ़ता का युग चल रहा है। (पृ० 5) मुझे तो लगता है कि बेचारा भगवान् पृष्ठ भूमि में चला गया और देवी-देवता आगे आकर उन्हें ढंक रहे हैं। हम उस मिथ्यात्व में फंस गये हैं जहाँ हमें अपने तीर्थंकरों से अधिक सद्यः फल देने की लालच में देवी-देवता अधिक पूज्य लग रहे हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्पष्ट लिखा है कि “भय, आशा, स्नेह और लोभ के वश की जानेवाली पूजा-भक्ति मिथ्यात्व के बंध का कारण है। पर हम इन सबकी अनदेखी किसके कारण करते हैं? मिथ्यात्व का जोर दिग्भ्रमित करता है। (पृ० 7) 142 -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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