________________
मिथ्यात्व की करामातः स्वरूपदेशना के आलोक में
डा० शेखरचन्द्र जैन- अहमदाबाद
प्रधान संपादक "तीर्थंकर वाणी" पूज्य आचार्य श्री, विद्वत्गण एवं जिज्ञासु श्रोता श्रावकगण! ___ यद्यपि किसी भी आलेख के प्रारंभ में संबोधन लिखना आवश्यक नहीं- पर कुछ विशेष प्रयोजन से लिख रहा हूँ। हम अध्ययन-मनन कर रहे हैं स्वरूप संबोधन या स्वरूप देशना की और मिथ्यात्व की करामात को खोज रहे हैं। वैसे एक वाक्य में पूरा आलेख यों लिखा जा सकता है कि "मिथ्यात्व की ही यह करामात है कि हम स्वरूप को न तो जान पाते हैं, न उसको कुछ संबोधन कर पाते हैं।” “मिथ्यात्व तो वह पीलिया रोग है जो वास्तविक रंग का पता ही नहीं चलने देता। जितने भी उपदेश या मान्यताएं जो आत्मा के उन्नयन में सहभागी नहीं वे सब मिथ्यात्व की करामात ही मानो।
परमपूज्य आचार्य भट्ट अकलंक देव ने “स्वरूप संबोधन” ग्रंथ की रचना की उस ग्रंथ रूपी गंगा को आ० विशुद्ध सागर जी ने भगीरथ बनकर अत्यंत सरल भाषा में हमारे सामने अवतरित किया ताकि हम आत्मस्वरूप का अवलोकन, ज्ञान प्राप्त कर, मुक्ति गंगा में अवगाहन कर सकें । यद्यपि मिथ्यात्व तो हमारे जीवन के अणु-अणु में, हमारी हर क्रिया में, कथन में व्याप्त है पर यहाँ हम अपनी बात ग्रंथ के परिप्रेक्ष्य में ही करेंगे।
एक बात और कह दूँ-न तो मूल लेखक की और न टीकाकार आचार्य की मूल भावना मिथ्यात्व की करामात बताना है पर वह समस्त स्थान और भाव जो आगम; आत्मा के लिए उपयोगी नहीं, जहाँ उससे हटकर बात हुयी है वह सब स्वयं मिथ्यात्व के अन्तर्गत समाविष्ट होती है। आ० श्री विशुद्ध सागर जी ने विविध प्रश्नों के उत्तर देते हुए अन्तरमना आत्मा आदि द्रव्यों का विवेचन किया है। अपनी बात को विविध दृष्टांतों द्वारा उपन्यास शैली में समझाना आपकी कुशलता है। पूरी कृति में अनेक वाक्य तो “सूत्रवाक्य” ही बन गये हैं। कृति का आनंद वही उठा पायेगा जो कृति की गहराई में पैठ सकेगा।
प्रथम मंगलाचरण में ही श्रमणों की चर्चा, उनके प्रकार के संदर्भ में उनका निरंतर विहार करते रहना ही योग्य माना है, यदि वे ऐसा न करें तो- “पानी का रूकना पानी के अंदर दुर्गन्ध उत्पन्न करता है। पानी जितना बहता है उतना ही निर्मल रहता है। (पृ० 2) यहाँ हम पहली मिथ्यात्व की यह करामात देख सकते हैं
स्वरूप देशना विमर्श
(141)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org