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आश्रय बिना नहीं रहता अतः आत्मा ज्ञान-प्रमाण ही है। यदि आत्मा से ज्ञान अथवा ज्ञेय को अधिक माना जाये तो आत्मा और ज्ञान में लक्ष्य – लक्षण भाव नहीं बन सकता। जैसे दूध में पड़ा हुआ इन्द्र नीलमणि अपने तेज से दूध को सब ओर से व्याप्त कर लेता है-अपनी प्रभा जैसा नीला बना लेता है- उसी प्रकार ज्ञेय के मध्यस्थित ज्ञान अपने प्रकाश से ज्ञेय समूह को पूर्णतः व्याप्त कर उसे प्रकाशित करता है। अर्थात् अपना विषय बनाता है। तात्पर्य यह है कि जैसे दूध से भरे हुए किसी बड़े पात्र में इन्द्रनीलमणि डाला जाता है तो वह अपनी प्रभा से दूध को नीला कर देता है उसी प्रकार ज्ञेयों के मध्य में स्थित हुआ केवल ज्ञान भी अपने तेज से अज्ञान - अंधकार को दूर कर समस्त ज्ञेयों में ज्ञेयाकार रूप से व्याप्त हुआ उन्हें प्रकाशित करता है। जिस प्रकार आँख रूप को ग्रहण करती हुयी रूपमय नहीं हो जाती । उसी प्रकार ज्ञान ज्ञेय को जानता हुआ ज्ञेयरूप नहीं हो जाता।" अर्थात् ज्ञान जिस पदार्थ को जानता है। उस पदार्थ के रूप नहीं हो जाता, जैसे कि आँख जिस रंग रूप को देखती है उस रूप स्वयं नहीं हो जाती । सारांश यह है कि देखने और जानने का काम तद्रूपरिणमन का नहीं है। विशेष यह है कि जिस प्रकार चुम्बक पाषाण दूरस्थित दूसरे लोहे को स्वभाव से अपनी ओर खींच लेता है उसी प्रकार केवल ज्ञान भी क्षेत्र और काल की अपेक्षा दूरवर्ती पदार्थों को अपनी ओर आकर्षित कर उन्हें निकटस्थ वर्तमान की तरह जानता है, यह उसका स्वभाव है।
इस प्रकार प्रमाण-प्रमेय / ज्ञान-ज्ञेय के स्वरूप की भलीभांति विवेचना के पश्चात् स्वरूप देशना मे उल्लिखित प्रमाण-प्रमेय / ज्ञान – ज्ञेय के कतिपय प्रसंगों पर दृष्टिपात करते हैं
ज्ञान की उपयोगिता प्रयोजनता और औचित्यनिष्ठता का प्रतिपादन करते हुए स्वरूप देशनाकार कहते हैं
"जिससे तत्त्व का बोध हो, जिससे चित्त का निरोध हो, आत्मा का शोध हो, उसे जिनेन्द्र के शासन में ज्ञान कहा है। भेद से अभेद की ओर ले जाए, खण्ड से अखण्ड की ओर ले जाए, उसका नाम सम्यग्ज्ञान है। हमारी समाज की अखण्डता को खण्ड-खण्ड करना ज्ञान नहीं है। ज्ञानी! खण्ड-खण्ड परिणामों को अखण्ड कर दे उसका नाम सम्यग्ज्ञान है। टूटे हृदयों को जोड़ दे उसका नाम सम्यग्ज्ञान है। जो दर्शन को भी निर्मल रखे, ज्योतिर्मय करे चारित्र को भी ज्योतिर्मय करे उसका नाम ज्ञान है। ज्ञान नहीं होगा तो ध्यान भी नहीं होगा | ध्यान नहीं होगा तो निर्वाण भी नहीं होगा ।ज्ञान से ध्यान होता है और तब ही ध्यान से निर्वाण होता है।"
स्वरूप देशना विमर्श
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