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पर-विषय में अप्रमाण रूप है। घट ज्ञान, घट विषय में प्रमाण है तथा परादि विषयों में अप्रमाण । इस प्रकार एक ही ज्ञान विषय भेद से प्रमाण भी है तथा अप्रमाण भी। स्याद्वादियों के यहाँ एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से विरोधी धर्म मानना बाधित नहीं होता।
अन्य विशेषता यह है कि ज्ञान, सच्चा भी होता है और झूठा भी होता है। सच्चा ज्ञान प्रमाण कहलाता है झूठा ज्ञान नहीं । इसलिए ज्ञान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य है। इन दोनों में व्याप्य व्यापक सम्बन्ध मानना चाहिए । इसी तरह का व्याप्य- व्यापक सम्बन्ध ज्ञप्ति और प्रमिति में, ज्ञेय और प्रमेय में, ज्ञाता और प्रमाता में भी है। ज्ञप्ति, ज्ञेय और ज्ञाता, सम्यक् और मिथ्या दोनों तरह के होते हैं इसलिए व्यापक है। प्रमिति, प्रमेय और प्रमाता सच्चे ही होते हैं, इसलिए व्याप्य हैं।
यहाँ प्रमिति, प्रमाता और प्रमेय का भी स्वरूप समझ लेना चाहिए । प्रमाण के द्वारा जो क्रिया (जानना) होती है उसे प्रमिति अथवा प्रमा कहते हैं। प्रमिति, प्रमाण के द्वारा पैदा होती है, इसलिए प्रमाण का साक्षात् फल प्रमिति ही है। इसी को अज्ञान निवृत्ति भी कहते हैं। प्रमाण का आधार अथवा कर्ता (जानने वाला व्यक्ति) प्रमाता कहलाता है। प्रमाण के द्वारा जो पदार्थ जाना जाता है उसे प्रमेय कहते हैं । जैन दर्शन में सामान्य- विशेषात्मक पदार्थ ही प्रमाण का विषय अर्थात् प्रमेय है। सामान्यविशेषात्मक पदार्थ ही प्रमाण का विषय है, क्योंकि वही अर्थ क्रिया में समर्थ है।" केवल सामान्य रूप या केवल विशेष रूप अर्थ अर्थक्रिया में समर्थ नहीं हो सकताअर्थात् केवल सामान्य रूप या केवल विशेष रूप पदार्थ की सत्ता ही सिद्ध नहीं होती है। सामान्य तिर्यक् और उर्ध्वता के भेद से दो प्रकार का तथा विशेष भी पर्याय और व्यतिरेक के भेद से दो प्रकार का होता है। यहाँ विस्तार भय से उनका नामोल्लेख ही किया गया है।
ज्ञान-ज्ञेय के संदर्भ में विशेष ज्ञातव्य यह है कि आत्मा को ज्ञान-प्रमाण और ज्ञान को ज्ञेय प्रमाण बतलाया गया है। ज्ञेय चूंकि लोक-अलोक रूप है अतः ज्ञान सर्वगत है अर्थात् सारे विश्व में व्याप्त होने के स्वभाव को लिए हुए है। *.
तात्पर्य यह है कि पर्याय दृष्टि से आत्मा जिस प्रकार स्वदेह- परिमाण है, गुणदृष्टि से उसी प्रकार स्वज्ञान – परिमाण है। आत्मा ज्ञान से छोटा या बड़ा नहीं होता है। क्योंकि आत्मा को ज्ञान से बढ़ा मानने पर आत्मा का वह बढ़ा हुआ अंश ज्ञान शून्य जड़ हो जायेगा और आत्मा को ज्ञान से छोटा मानने पर आत्म प्रदेशों के बाहर स्थित ज्ञान-गुण गुणी के आश्रय बिना ठहरेगा और गुण गुणी (द्रव्य) के (136)
-स्वरूप देशना विमर्श
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