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ज्ञान को प्रमाण मानने पर ज्ञान के फल का अभाव असिद्ध ही है क्योंकि पदार्थ के ज्ञान होने पर प्रीति देखी जाती है। यद्यपि आत्मा ज्ञान स्वभाव है तो भी वह कर्मों से मलीन है। अतः इन्द्रियों के आलम्बन से पदार्थ का निश्चय होने पर उसके जो प्रीति उत्पन्न होती है वही प्रमाण का फल कहा जाता है। अथवा उपेक्षा या अज्ञान का नाश प्रमाण का फल है। राग-द्वेष रूप परिणामों का नहीं होना उपेक्षा है और अन्धकार के समान अज्ञान का दूर हो जाना अज्ञाननाश है। सो ये भी प्रमाण के फल हैं।"
जीवादिपदार्थों के ज्ञान में प्रमाण को कारण मानने पर उस प्रमाण के ज्ञान के लिए अन्य प्रमाण को कारण मानने की आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि प्रमाण पदार्थों को भी जानता है और अपने को भी जानता है। जैसा कि आचार्य अमित गति जी लिखते हैं
ज्ञानमात्मानमर्थं च परिच्छिते स्वभावतः।
दीप उद्योतयत्यर्थं स्वस्मिन्नान्यमपेक्षते॥" ज्ञान आत्मा को, पदार्थ- समूह को स्वभाव से ही जानता है। जैसे दीपक स्वभाव से अन्य पदार्थ - समूह को प्रकाशित करता है, वैसे अपने प्रकाशन में अन्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता- अपने को भी प्रकाशित करता है। अर्थात् जिस प्रकार घटादि पदार्थों के प्रकाश करने में दीपक हेतु है और अपने स्वरूप के प्रकाश करने में भी वही हेतु है, इसके लिए प्रकाशान्तर नहीं ढूढ़ना पड़ता। उसी प्रकार प्रमाण भी है और यदि प्रमेय के समान प्रमाण के लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो स्व का ज्ञान नहीं होने से स्मृति का अभाव हो जाता है और स्मृति का अभाव हो जाने से व्यवहार का लोप हो जाता है।" ज्ञान की स्व पर- प्रकाशता का वर्णन देशनाकार ने अपने शब्दों में इस तरह किया है- "अर्थ से आलोक से उत्पन्न नहीं होने पर भी, प्रदीप के समान जैसे दीपक पदार्थ से उत्पन्न नहीं हुआ। पर को भी प्रकाशित कर रहा है, स्व को भी प्रकाशित कर रहा है। ऐसे ही मेरी आत्मा का जो ज्ञान गुण है, वह नट का खेल नहीं है। दीपक की ज्योति है। दीपक स्वयं को भी प्रकाशित करता है और पर को भी प्रकाशित करता है। ऐसे ही सम्यग्ज्ञान आत्मगुण को भी प्रकाशित करता है और पर पदार्थों को भी प्रकाशित करता है।
उपर्युक्त विवेचन का निष्कर्ष यही है कि ज्ञान को ही सर्वत्र प्रमाण मानना चाहिए । यहाँ पर विशेष ध्यातव्य यह है कि जब प्रमाण को ज्ञान स्वरूप माना है तब ज्ञान और प्रमाण में कुछ विशेषता है या नहीं। प्रथम विशेषता तो यह है। ज्ञान कथंचित् प्रमाण है और कथंचित् अप्रमाण है। प्रमाण अपने विषय में प्रमाण रूप है स्वरूप देशना विमर्श
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