________________
के प्रति साधकतम नहीं होने से अर्थात् अज्ञान की निवृत्ति नहीं करने से धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण नहीं माना है।'' अर्थ' पद का प्रयोग विज्ञानाद्वैतवादी, पुरुषाद्वैतवादी और शून्यैकान्तवादियों के निराकरण हेतु किया गया है जो बाह्य पदार्थों की सत्ता
8
नहीं मानते हैं। लक्षण में 'व्यवसायात्मक' पद का प्रयोग बौद्धों के निराकरण हेतु किया गया है जो ज्ञान को प्रमाण मानकर भी निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ज्ञान को ही प्रमाण
9
मानते हैं । ' 'व्यवसायात्मक' पद के प्रयोग द्वारा संशय-विपर्यय - अनध्यवसाय रूप समारोप की प्रमाणता का भी निराकरण होता है। इस प्रकार के उपर्युक्त लक्षण का प्रत्येक पद साभिप्राय है ।
श्री माइल्ल धवल के अनुसार -
गेहइ वत्थुसहावं अविरूद्धं सम्मरूव जं णाणं ।
10
भणियं खु सं प्रमाणं पच्चक्खपरोक्खभेएहिं ॥ 169 ॥
अर्थात् जो ज्ञान वस्तु के यथार्थ स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानता है उसे प्रमाण कहते हैं ।
श्रीमदभिनव धर्मभूषण यति के अनुसार
11
‘सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्’ ” अर्थात् सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है ।
इस प्रकार जैन न्याय में ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है। ज्ञान को प्रमाण मानने से नैयायिकादिदार्शनिकों द्वारा मान्य सन्निकर्ष कारक साकल्य, इन्द्रियवृत्ति और ज्ञातृव्यापार की प्रमाणता का भी खण्डन किया गया है। 2
13
वस्तु को जानने का काम आत्मा में रहने वाले ज्ञान गुण का है। इसलिए प्रमाण शब्द से ज्ञान ही कहा जाता है। ज्ञान को ही प्रमाण मानना इसलिए समीचीन है, क्योंकि उसी के द्वारा पदार्थ का सम्यग्ज्ञान होता है। तथा ज्ञान ही हित की प्राप्ति एवं अहित के परिहार में समर्थ है। " अन्य दार्शनिकों ने सन्निकर्ष अथवा इन्द्रिय व्यापार को प्रमाण माना है, परन्तु इसे मुख्य प्रमाण न समझना चाहिए क्योंकि ये तो मुख्य प्रमाण के कारण हैं, स्वयं मुख्य प्रमाण नहीं है। मुख्य प्रमाण वही है जो पदार्थ के जानने में अन्तिम कारण हो । उपर्युक्त इन्द्रियादिक अंतिम कारण नहीं है, क्योंकि इन्द्रयादिक जड़ है। इनका व्यापार होने पर भी अगर ज्ञान का व्यापार न हो तो हम पदार्थ को नहीं जान सकते। जब इन्द्रिय व्यापार के बाद ज्ञान पैदा होता है, तब वही अन्तिम कहलाया, इन्द्रिय व्यापार नहीं, इसलिए इन्द्रिय व्यापार आदि को गौण या उपचरित प्रमाण मानना चाहिए। 4 वास्तविक प्रमाण सम्यग्ज्ञान ही है ।
14
134
• स्वरूप देशना विमर्श
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org