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________________ स्वरूपदेशना में प्रमाण -प्रमेय व्याख्या ___ - सोनल के. शास्त्री जिससे वस्तुतत्त्व का निर्णय किया जाता है- उसे सम्यक् रूप से जाना जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण के विषय को प्रमेय कहते हैं। प्रमेय की व्यवस्था प्रमाणाधीन है, इसी से सभी दार्शनिक प्रमाण को मान्य कहते हैं। प्रत्येक दर्शन में प्रमाण शास्त्र की स्थिति महत्वपूर्ण मानी जाती है। जैन दर्शन में भी प्रमाण शास्त्र का अपना विशिष्ट स्थान है। प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए आ० पूज्य पादमहाराज लिखते हैं "प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम्" । अर्थात् जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रमितिमात्र प्रमाण है। प्रमाण को परिभाषित करते हुए आचार्य अकलंकदेव कहते हैं "ज्ञानं प्रमाणमात्मादे..........." अर्थात् आत्मादि पदार्थों का जो ज्ञान है वही प्रमाण है। . आ० हेमचन्द्र सूरि के अनुसार -"प्रकर्षेण संशयादित्यवच्छेदेन जीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणम्" जिसके द्वारा वस्तु तत्त्व को सच्चे रूप में (संशयादि रहित) जाना जाता है, पहचाना जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं। आ० माणिक्यनन्दि परमत-खण्डन की विशेष विवक्षा पूर्वक प्रमाण का लक्षण लिखते हैं "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्” * अर्थात् स्व और अपूर्व अर्थ का व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) ज्ञान ही प्रमाण है। प्रमाण का यह लक्षण अन्य दर्शन सम्मत प्रमाण लक्षण का खण्डन करता है और इसका प्रत्येक पद साभिप्राय है। उक्त लक्षण में 'स्व' पद का प्रयोग परोक्ष ज्ञानवादी मीमांसक, ज्ञानान्तर प्रत्यक्षवादी योग और अस्वसंवेदन ज्ञानवादी सांख्यों की मान्यता का निराकरण करने के लिए किया गया है जो ऐसा मानते हैं कि ज्ञान स्वयं को नहीं जानता- अस्वसंवेदी होता है। 'अपूर्व' पद का प्रयोग गृहीतग्राही धारावाहिक ज्ञान की प्रमाणता के निराकरण हेतु किया गया है। जैन न्याय में प्रमिति स्वरूप देशना विमर्श (133) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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