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“वह ज्ञान 'ज्ञान' नहीं है जिस ज्ञान से अहित का परिहार नहीं है। वही ज्ञान 'ज्ञान' है जिससे अहित का परिहार है। ॐ
“वह ज्ञान अज्ञान भूत है जो ज्ञान विनय से शून्य कर दे और मद को उत्पन्न करा दे | गुण प्राप्त हुआ है वह गुणी की पहचान के लिए होता है वह गुणी के विनाश के लिए नहीं होता है।
पदार्थों को जानने मात्र से दुःख नहीं होता है। - "बहिःप्रमेय में कष्ट है, बहिः प्रमेय में राग है, बहिः प्रमेय में द्वेष है, बहिः प्रमेय में सम्यक् मिथ्यात्व है। भाव प्रमेय तो एक अवाच्य है। भाव प्रमेय में क्या देखता है? ज्ञान से ज्ञाता ज्ञेय को जब निहारता है, राग द्वेष को गौण करके, तब मात्र सुख भी सत्प है, दुःख भी सप है। दोनों की सत्ता स्वीकारिए । दोनों पुण्य-पाप पदार्थ है। शुभाशुभ आस्रव भाव भी पदार्थ हैं, तत्त्व भी पदार्थ हैं। पदार्थ को पदार्थ रूप में देखिए । पदार्थ में प्रवेश क्यों करते हो? जो दुःख को दुःख रूप देखता है वही दुःखी होता है। जो दुःख को दुःख रूप नहीं देखता वह दुःखी नहीं होता।
वस्तु को ज्ञेय बनाकर देखो, वस्तु को रागमय मत देखो । वस्तु में ज्ञेयत्व को निहारिए, वस्तु में रागत्व को मत निहारिए | जानना - देखना यह बंध का कारण नहीं है।जानने- देखने में लीन होना, ये बंध का कारण है। जैसे मुट्ठी में रखा जहर मृत्यु का कारण नहीं होता, लेकिन मुख में रखा जहर मृत्यु का कारण होता है।*
शान्तिमय गृहस्थ जीवन यापन करने का प्रबंधन मंत्र देते हुए देशनाकार कहते हैं
"आज से कभी अपने ज्ञान को पर ज्ञेय में मत लगाना । छोटी-छोटी बातों को लेकर घर में विसंवाद करके घर का वातावरण अशुभ मत करना और अपने परिणामों को अशुभ मत करना।
हम सब भी अपने ज्ञान का ज्ञेय शुभ विषयों को बनाते हुए क्रमशः शुद्ध को ज्ञेय बनाकर ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय की अभिन्नत्व दशा को प्राप्त कर सके यही इस आलेख की फलश्रुति होगी।
॥ इति॥
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-स्वरूप देशना विमच
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