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82. पूर्व में किये ये दोष जो आज उदय में आ रहे हैं। अब उनको शान्ति से सहन
कर लेता तो निर्जरा हो जाती। लेकिन सहन न करने के स्थान पर दूसरे को
दोष दे रहा है, जिससे नवीन कर्मों को और आमंत्रण कर रहा है। 83. श्रेष्ठ साधन भी करते रहोगे और दोषों का प्रायश्चित भी नहीं करोगे तो
विश्वास रखना कुमरण ही होगा, सुमरण नहीं होगा। 84. उस मोहनीय कर्म को भी आप ज्ञेय बनाइये, हेय बनाइये। क्यों उसे उपादेय
मान रहे हो? धिक्कार हो उस जीव को, जो मोह को भी अपना मान रहा है। 85. गृहस्थी में आप रह रहे हो, सो रहो, लेकिन गृहस्थी में रहने पर संतुष्ट मत हो
जाना। 86. जिसका उदय नहीं, उदीरणा नहीं, क्षयोपशम नहीं वह पारिणामिक भाव हैं। 87. दिगम्बर मुनि से कहा जाता है, कि आपको मौन रहना चाहिए लेकिन हे
मुनिराज! कहीं धर्म का नाश हो रहा हो, क्रिया का ध्वंश हो रहा हो, ऐसे काल में
कोई न भी पूछे तो भी आप मुखर हो जाना। 88. साधु स्वभाव क्या है? जो शत्रु में भी शत्रुता न रखता हो और मित्र में मित्रता न
रखता हो, साम्यभाव रखता हो। 89. 'ज्ञान से यश मिलता है, चारित्र से पूजा मिलती है, सम्यक् से देवत्व मिलता है
और तीनों से शिवत्व की प्राप्ति होती है। 90. अपने चेहरे के अन्दर की मुस्कराहट समाप्त नहीं करना चाहते हो, तो आज से . दूसरे की प्रवृत्ति को ज्ञेय बनाना छोड़ दो। 91. अल्पज्ञान मोह रहित है तो मोक्ष का साधन है और बहुज्ञान भी मोह सहित है, तो
संसार का ही कारण है। 92. जब भी तुम जिनेन्द्र के चरणों में आना, निसंग होकर आना, निशंक होकर
और निःकांक्षित होकर आना। इन तीनों में से एक भी भुलाओगे तो परमेष्ठी के
प्रति तेरी जो सम्यक धारणा थी वह विचलित हो जाएगी। 93. शास्त्रों का पार नहीं है, आयु का काल थोड़ा है, हम लोगों की बुद्धि अल्प है
इसलिए उसे ही सीखना चाहिए, जिससे जन्म व मरण का नाश हो। 94. जो समीचीन वृत्ति से कमाई जाए, उसका नाम सम्पत्ति है। जो लात जाओ,
धरत जाओ और मरत जाओ, उसका नाम धन है। 95. लक्ष्मण-गुणमाला से- हे देवी! मैं यदि वापस न आऊँ, तो मुझे वह दोष लगे
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-स्वरूप देशना विमर्श
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