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________________ 130. भूत का पुरूषार्थ वर्तमान का भाग्य है। 131. सुखमय जीवन जियो, 'होता स्वयं जगत परिणाम' । 132. शमशान घाट में भी जीवंधर को पालने वाला मिल गया था । 133. समाधि के लिए आक्षेपणी - विक्षेपणी से काम नहीं चलेगा। सलेखना के लिए संवेगिनी - निर्वेगिनी कथा ही चाहिए । 134 . आनन्द का जीवन जीना है, तो श्री और स्त्री से दूर रहना । नीति वाक्य 1. जब तक अग्नि और अम्बर है और जब से अग्नि और अम्बर है तब से दिगम्बर है और तब तक दिगम्बर है। 2. जब से जिनशासन है तब से वाचना है. और जब से जिन वाचना है तब से जिनशासन है । 3. नमोस्तु शासन में निर्ग्रन्थ की आराधना है, सग्रन्थ की नहीं है । 4. हमने प्रज्ञा को दूसरे के खण्डन में तो प्रयोग किया, स्याद्वाद के मण्डन में प्रयोग कर लेता, तो पर का खण्डन स्वयमेव हो जाता । 5. लोग तत्त्व से इतना भ्रमित हो चुके हैं कि देवी - देवता के नाम पर और जादू- टौना के नाम पर तीर्थंकर के शासन की शक्ति तो महसूस नहीं होती। 6. जो कर्मों से तथा सम्यग्ज्ञान आदि से क्रमशः मुक्त और अमुक्त होता हुआ एक रूप है, उस अविनाशी, ज्ञानमूर्ति परमात्मा को मैं (भट्ट अकलंक) नमस्कार करता हूँ । 7. यदि सुकुमाल कुशल पुत्र का जन्म हुआ है तो पिता का पुण्य है और उत्कृष्ट कुल में जन्मा है, तो बेटे का पुण्य है। 8. हे जनक! तू वास्तव में जनक किसी का है, तो अपनी काम- इच्छाओं का जनक है। तू अपने पुत्र का जनक नहीं है। 9. यदि जैन दर्शन का बोधन ही है, तो जैन कुल में जन्म लेने के उपरान्त भी जैनत्व की पहचान नहीं है । 10. न तू ऊपर किसी को ले जा पायेगा, न तुझे कोई ऊपर ले जायेगा। इस पर्याय के राग में पर्यायी विलखेगा। ऊपर जाना चाहता है, तो पर्याय के सम्बन्धियों को छोड़ दे और परिणामों को सम्भाल ले । स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only 123 www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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