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पर तर्क नहीं चलता। 115. जो जीव संसार में पतित हो रहा है, वह दूसरे को क्या मोक्ष का उपदेश दे
सकेगा। 116. जो आप्त के वचनों से निबंधन है वह मात्र आगम है। परन्तु हमें आप्त की
पहचान करनी चाहिए, फिर आगम की पहचान करनी चाहिए। 117. यदि संयम से शिथिल है, तो स्वयं का घातक है। यदि ज्ञान में शिथिल है, तो
स्व पर घातक है। 118. दान देना और पूजा करना श्रावक का मुख्य धर्म है। यदि तू इसका ही निषेध
कर देगा तो श्रावक करेंगे क्या? ये निषेध वो ही कर पाते हैं, जिन्हें धर्म से कोई
प्रयोजन नहीं है। 119. चार अभिषेक होते हैं- पहला तीर्थंकर बालक का होता है - जन्म-कल्याणक,
दूसरा राज्याभिषेक, तीसरा दीक्षाभिषेक, इसके बाद अरहंत की प्रतिमा
विराजमान हो जाती है, तब चौथा प्रतिमाभिषेक होता है। 120. अन्य क्षेत्रे कृतं पापं पुण्य क्षेत्रे विनश्यति।
पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं, वज्रलेपो भविष्यति ॥ 121. जो दुर्गति से निकलकर आया है या दुर्गति में जाने वाला है उसी जीव की मति
दुर्मति होती है। 122.शिष्य बनाना साधुता का कार्य है, सेवक बनाना परिग्रह का कार्य है। सच्चा वीतरागी
श्रमण कभी सेवक नहीं बनाता, शिष्य बनाता है। 123. श्रद्धा आत्मा का अखण्ड गुण है। आत्मा सम्यक्त्व से भिन्न नहीं होती। 124.पर्याय दृष्टि नरकेश्वरा, द्रव्यदृष्टि महेश्वरा । 125.सिंहनी का दुग्ध स्वर्ण पात्र में ही रखा जाता है। 126.जो सद्भाव में भी अभाव को देखे, उससे बड़ा अभागा कौन होगा। 127.श्री जिनेन्द्र के अभिषेक को जो जड़ की क्रिया कहे, जगत् में उससे बड़ा पापी
कौन हो सकता है? 128.दुर्गति से बचना है, सुगति को पाना है, तो चरित्र को स्वीकार करो। 129. भाई-भाई ने जो झगड़ा किया था वह कलंक तुम भगवान् बनकर भी नहीं मिटा
सके/पाये।
(122)
-स्वरूप देशना विमर्श
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