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97. मंदिरों में चित्र उन्हीं के होते हैं, जिनके चारित्र विशाल होते हैं। 98. जिससे हृदय अंधकार में चला जाए, ऐसे चित्र देखना घोर मिथ्यात्व है। 99. कषायों के निमित्त पराश्रित हैं, कषायें करना, नहीं करना स्वाश्रित है। 100.दिगम्बर मुनियों के छह समय (काल) होते हैं
1.दीक्षा काल, 2.शिक्षा काल, 3.गणपोषण काल, 4. आत्म संस्कार काल,5.
सन्यास काल 6.उत्तमार्थ काल। 101. योगों का अर्थ ही ये है, कि आत्म प्रदेशों को चंचल कर दे उसी का नाम योग है। 102. पर की निन्दा में न अणुव्रत पलते हैं, न महाव्रत पलते हैं। लेकिन जिनागम को
कहते में दोनों पलते हैं। 103. यदि उत्तम प्रकृत्ति है, तो कुसंग क्या करेगा? ये चन्दन के वृक्ष में विषधर साँप
लिपटे रहते हैं, फिर भी चन्दन को विषाक्त नहीं कर पाते। 104.जितना द्वादशांग है, सम्पूर्ण द्वादशांग में द्रव्य, गुण, पर्याय का ही वर्णन है। 105. एक ही माँ के दो लाल, एक मुस्करा रहा है, दूसरा विलख रहा है, इसमें माँ का
क्या दोष? कर्म का ही विपाक है। 106.दोष देने के स्थान पर साम्यभाव को विराजमान कर लो। ज्ञानी निर्दोष
परमात्मा को प्राप्त कर लेगा। 107.जो विशुद्धिपूर्वक निज निंदा की जाए गुरु साक्षी में वह आलोचना है और
संक्लेशता में बदल जाए, वह आलोचना नहीं वह संक्लेश स्थान है। 108.जब तक विषय-कषाय न छूटे, भगवान् की पूजन मत छोड़ देना, वह तो
परम्परा से मोक्ष का कारण है। . 109.ज्ञानी लोग जिनवाणी को मनन करते-करते सोते हैं और उठते हैं, लेकिन
अज्ञानी चिंता में सोते हैं और चिंता में उठते हैं। 110. बोध मूर्ति, ज्ञान मूर्ति की अपेक्षा से आत्मा अमूर्तिक है। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण
का अभाव होने से आत्मा अमूर्तिक है। 111. प्रमाद से ज्ञान नहीं और ज्ञानी को प्रमाद नहीं। 112. ज्ञानी का शत्रु, प्रमाद और कषाय है। 113. जो कुशल क्रिया में अनादर भाव है, इसका नाम प्रमाद है। 114. दो पर तर्क नहीं चलता। एक आगम पर तर्क नहीं चलता और दूसरा स्वभाव स्वरूप देशना विमर्श
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