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________________ भैया ! ये है साला (शरीर की ओर इशारा करके) सातों फेरियों में साथ में घूमेगा। ये पर्याय तेरे साथ चौबीस घंटे घूम रही है, विश्वास रखना, फिर भी सिंघई नहीं बन पाएगी। सिंघई जब भी बनेगा, वह आत्म - भैया ही बनेगा । उसे मत भूल जाना । * 46 दुग्ध में घी को देखना द्रव्य- - दृष्टि है, पर दूध घी नहीं है । दुग्ध घी है, तिल तेल ही है, तो फिर व्यर्थ का पुरूषार्थ क्यों ? दूध में तिल में ही पूड़ीयाँ सेंक लेना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता । देशनाकार उसे अज्ञानी कहकर एकान्तवादी पर कटाक्ष करते कहते हैं "..... ये अज्ञानी लोग हैं जो स्वभाव की जगह द्रव्य-दृष्टि को द्रव्य ही मान बैठे हैं । " 47 अज्ञानियों ने अशुद्ध पर्याय में अव्यक्त शुद्ध द्रव्य को ही पूजना प्रारम्भ किया, पूजा तो द्रव्य की होती है, न की द्रव्य - दृष्टि की। द्रव्य दृष्टि तो द्रव्य निक्षेप है, - भविष्य की पर्याय की अपेक्षा है, वर्तमान में व्यक्त रूप नहीं है भगवत्ता, पर भूत-भ शक्ति रूप अवश्य है । जो पूजा हम करते हैं वह भाव निक्षेप से है। पूज्य तो शुद्धं द्रव्य है, शुद्ध पर्याय सहित व्यक्त रूप । पृष्ठ 388 पर वाचना काल में, आशीर्वादार्थ पधारे दीक्षार्थियों को लक्षित करते हुए द्रव्य - दृष्टि को कहते हैं. "ज्ञानी! जिनकी शवयात्रा निकलने वाली होती है, उनका तो आपने अनेक बार सम्मान किया, परन्तु जिनकी शिवयात्रा चलने वाली हो, उनके सम्मान आज तुम कर रहे हो। इसे भैया लोगों का, बहनों का सम्मान तुम नहीं समझना । ये हैं भावी आर्यिकाऐं, भावी मुनिराज । अरे! भावी मुनिराज आर्यिकाऐं क्या, द्रव्य-दृष्टि से देखो तो ये भावी अरहंत - सिद्ध भगवान हैं ।" 48 जीव ने संज्ञावान् संज्ञान को नहीं समझा, संज्ञान की संज्ञा को संज्ञान से भिन्न नहीं जाना, इसलिए पंच परावर्तन कर रहा है। संज्ञा भिन्न है, संज्ञान भिन्न है। संज्ञान तो द्रव्य है, संज्ञा पर्याय का नाम है। जिसने संज्ञान के वास्तविक स्वरूप को जान लिया है वही 'ज्ञानी' संज्ञा को समझ पायेगा, द्रव्य-दृष्टि को समझ पायेगा । पृष्ठ 374 पर आचार्य श्री कहते हैं कि "पुण्य 'के द्रव्य का भोग तो जगत् में बहुत सारे लोग करना जानते हैं, परन्तु पुण्य के द्रव्य को पुण्य-पाप से रहित करने में जो लगा देता है, उसका नाम 'ज्ञानी' है । ज्ञानी! द्रव्य तो हर व्यक्ति को मिलता है, परन्तु द्रव्य को द्रव्य-दृष्टि में लगा दे उसका नाम 'ज्ञानी' है । 49 110 Jain Education International For Personal & Private Use Only स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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