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________________ द्रव्यदृष्टि का आलम्बन लेने का निर्देशन करते हुए कहते हैं कि.. ___ “पुत्र ने जन्म ले लिया तो हर्षित हो गया और पुत्री ने जन्म ले लिया तो विषाद करने लगा । यही तेरी दृष्टि में खोट है। जो न पुत्र पर्याय को देखे, न पुत्री पर्याय को देखे,मात्र जीव द्रव्य को देखे, वह ज्ञानी कहेगा कि जीव द्रव्य आया है। उसको न हर्ष है, न विषाद है। मध्यस्थ भाव । अक्षयं परमात्मा की प्राप्ति चाहिए है तो क्षय होने वाली पर्याय से परिणति को हटाना पड़ेगा..... इस पर्याय-दृष्टि की हेयता बताते हुए कहा ........ - “जो उत्पन्न हो रही है, वह पर्याय है। जिसमें मैं हूँ, वह मैं नहीं हूँ। जो मैं हूँ, वह इसमें नहीं है। जो उत्पन्न हो रहा है वह पर्याय है। हो रही है, परन्तुं थी नहीं । जो थी नहीं, हुयी है, वह रहेगी नहीं। जो थी नहीं, लेकिन है, वह रहेगी नहीं। जो रहेगी नहीं, उनके पीछे तूने कितनों को कष्ट दिया है? अरे मुमुक्षु! इस शरीर की रक्षा के पीछे अनंत शरीरों के नाश का तू विचार करता है। जैसे वे नश गए,ऐसे ये भी नशेगा। ऐसे नाशवान् के पीछे अनंतों का नाश मत करिये। स्वरूप-संबोधन' सुन रहे थे। जितने समय जिनालय आते हो, बीच-बीच में शमशान भी चले जाया करो। हे मुमुक्षु! तू जिनमन्दिर आता है, दिन में तीन बार आता है तो एक बार शमशान घाट भी चले जाया करो। जिनालय में भगवान् की भक्ति करने आना और शमशान में वस्तु स्वरूप को समझने जाना । जितने गोरे थे, जितने सुन्दर थे, कितना श्रृंगार किया, कितना शरीर को सजाया, परन्तु सबको वहाँ देखने चले जाना । वहाँ सबका रंग काला ही होता है। राख का ढेर ही मिलेगा। अहो ज्ञानियो! जिसमें राग किया है, उसकी राख होगी। अरे राख के रागियो! तुम्हे राख से ही राग करना था, तो चूल्हे की राख को भी साबुन लगा देता? क्यों भैया! सुन रहे हो, कि झेल रहे हो? बुरा लग रहा है? हे जनक! थोड़ा ठंडा मस्तिष्क करके फिर सुनो । हे जनक! मत देखो पुत्र को अब तुम पुत्र की पर्याय के आप निमित्त कर्ता तो हो सकते हो, परन्तु पुत्र के जीवत्व भाव के आप निमित्त कर्ता भी नहीं हो। “कण-कण स्वतंत्र है। परमाणु-परमाणु स्वतंत्र है।" ज्ञानियो! तीर्थ प्राप्ति के लिए तीर्थों में नहीं जाया जाता । तीर्थ स्वभाव के लिए, शांत उपदेश की खोज के लिए आप तीर्थों में जाते हो। तीर्थ की प्राप्ति तो अंदर ही होगी समझना, भटकना नहीं। किसी ने नदियों में स्नान किया, किसी ने सागरों में स्नान किया । ज्ञानी! शरीर को ही स्वच्छ कर पाओगे,शुद्ध भी नहीं कर पाओगे। ये नदियां, सागर, सरिताऐं, सरोवर इस शरीर को स्वच्छ करने के स्थान तो हो सकते हैं, लेकिन शरीर को शुद्ध करने के स्थान नहीं हैं। शरीर शुद्ध तो हो ही नहीं सकता। जिसमें नव मल द्वार सवित हो रहे हों, मल-मूत्र का पिण्ड ही हो, वह शुद्ध कैसे हो (104 -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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