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________________ होगा, घी खाया होगा। लेकिन दादा फिर मेरी समझ में नहीं आ रहा, तूने इतना दूध पिया, घी खाया, काजू, किशमिश के बघार लगा लगा के तूने सबकुछ किया है, फिर भी तेरे बाल सफेद कैसे हो गये और युवावस्था आपके देखते-देखते समाप्त हो गयी । रोज दर्पण में चेहरा देखा, बेचारा सोचता रहा कि बचा लेगा, लेकिन फिर भी अपने शरीर के लावण्य को बचा कर नहीं रख सका। जब तू अपने शरीर को ही नहीं बचा पाया, इन्हें नहीं रोक पाया बदलने से तो दुनियां को बदलने का ठेका तूने कब से ले लिया है? क्या बदल पाएगा? क्या बदलने से बचा पाएगा? विश्वास रखना कोई बचा नहीं पाएगा। हम शरीर के उत्पाद-व्यय को तो देख रहे हैं। मेरे तो वर्तमान की पर्याय में दो उत्पाद - व्यय चल रहे हैं। असमान जाति में तो ये शरीर में चल ही रहा है, समान जाति अंतरंग में मेरे निज चैतन्य द्रव्य गुण - पर्याय में भी परिणमन चल रहा है और शरीर में भी परिणमन चल रहा है ।" , 27 पर्याय से पर्यायान्तर होने पर भी द्रव्य - धौव्य है यह कहते हैं. "सम्यग्दृष्टि जीव, तत्त्व ज्ञानी जीव शांत रहता है चाहे वियोग हो रहा हो, चाहे संयोग हो रहा हो । ध्रुव आत्मा का विनाश होता नहीं । जो मनुष्य है, वह देव पर्याय को प्राप्त हो गया। मनुष्य पर्याय का व्यय, देव पर्याय का उत्पाद लेकिन जीवत्व ध्रुव है तो अब रोना क्यों ?" 28 संयोग-वियोग पर्याय का है इसलिए दुःख नहीं करने का निर्देश करते हुए कहते हैं. "अरे भैया! रोने की क्या जरूरत है? संयोग था तो सेवा की, वियोग हो गया तो शांति से जियो। संयोग हो जाए तो अच्छे से उसका पालन करो, वियोग हो जाए तो विसर्जन करो, रोने की कोई आवश्यकता नहीं है। त्रस होगा तो त्रसनाली के बाहर नहीं जाएगा । अब बताओ, ज्ञानी ! तू रोता क्यों है? आज तक छः द्रव्यों में से एक भी द्रव्य किंचित मात्र भी कम नहीं हुआ, न बढ़ा है।" 29 "जो त्रस राशि में था, वह सिद्ध राशि में चला गया और जो निगोद राशि में था वह त्रस राशि में आ गया। जीव कहाँ गया है? ऐसा धैर्य चिंतवन में आ जाए तो घर-घर में आनन्द का अनुभव प्रतिदिन होने लग जायेगा ।" 30 "जब द्रव्य दृष्टि की वाणी इतना आनन्द देती है, तो द्रव्य-दृष्टि की अनुभूति क्या आनन्द देगी, एक बार लेकर तो देख । ज्ञानी! 'तू भी भविष्य का भगवान् है ।' इस वाक्य की महिमा है। इस वाक्य ने शेर को श्रावक बना दिया । 'भो! भावी भगवान्! तू किसे पंजा मार रहा है? तू भविष्य का भगवान् है।' पंजा छूट गया और 102 • स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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