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________________ परिणमन पर पर्याय पर होगी तो पर्याय - दृष्टि है। माना की आटा द्रव्य है और कोई पराठा बनाना चाहे, कोई रोटी, कोई पूरी तो उस आटे को सभी पर्यायों में देखना, द्रव्य दृष्टि है और रोटी, पराठा, पूरी रूप निहारना पर्याय दृष्टि है। मूल ग्रन्थकर्ता, आचार्य भट्ट अकलंक देव मुख्यतः से प्रारम्भ के दस श्लोकों में जीव द्रव्य के स्वभाव का कथन द्रव्य दृष्टि से कर रहे हैं। अनंतर द्रव्य दृष्टि और स्वभाव प्राप्ति के उपाय की प्ररूपना की है।श्लोक क्र० 1 में "अक्षयं परमात्मन' पद देकर आचार्य देव ने द्रव्य की त्रैकालिक सत्ता बतलाकर अवत्तारवाद कर्त्तावाद का खण्डन किया है। जीव-द्रव्य का क्रमिक विकास कैसे होता है, यह बताते हुए द्वितीय श्लोक में "क्रमाद्धेतुफलावहः। चरण देकर द्रव्य दृष्टि का कथन किया है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ‘पञ्चास्तिकाय' जी में लिखते हैं ___ "अण्णोण्णं पविसंता देंता ओगासमण्णमण्णस्स। ... मेलंता वि णिच्चं सग सभावं ण विजंहति॥7॥" .. द्रव्य परस्पर में मिले होने पर भी, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। जीव -द्रव्य और द्रव्य कर्मों का संश्लेश संबंध होने पर भी दोनों अपने चतुष्टय को नहीं छोड़ते, पर चतुष्टय को ग्रहण नहीं करते। इस अपेक्षा से आत्मा ग्राह्य – अग्राह्य है। यह बात अकलंक देव बता रहे हैं “ यो ग्राह्योऽग्राह्यनाद्यन्तः। " चरण से श्लोक 2 में। पूर्वाचार्यों का कथन “उत्पाद-व्ययधोव्य-युक्तं सत्” " को पुष्ट करते हुए श्लोक क्र० 2 में स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः। अंतिम पद में द्रव्य की उत्पत्ति और व्यय भूत पर्याय रूप परिणमन और धौव्य अर्थात् स्थिति की त्रैकालिकता से द्रव्य दृष्टि का प्रतिपादन किया । जो जैसा करेगा वैसा ही भरेगा और पुरूषार्थ करेगा तो स्वयं ही उससे मुक्त हो जायेगा, इससे आचार्य देव की द्रव्य-पर्याय दृष्टि श्लोक नौ, दस में दिखती है। (5) II स्वरूप-देशना के परिपेक्ष में ‘स्वरूप-देशना' में देशनाकार आचार्य भगवन् 108 श्री विशुद्ध सागर जी ने द्रव्य दृष्टि-पर्याय दृष्टि की विशद चर्चा की है। यथार्थ है जिसने द्रव्य-दृष्टि को समझकर पर्याय-दृष्टि में लीन होना छोड़ दिया है, ऐसा जिन दीक्षाधारी दिगम्बर योगी ही वास्तविक द्रव्य के स्वरूप का कथन सम्यक कर सकता है। स्वरूप देशना' में ऐसी कोई विरली ही देशना होगी जहाँ द्रव्य या पर्याय दृष्टि का व्याख्यान नहीं किया हो। कहीं न कहीं विषय वहीं पहुँचता है, क्योंकि मूलग्रन्थ ही अध्यात्म का है और द्रव्य दृष्टि वास्तव में अध्यात्म नय का ही विषय है। देशना में योगी और भोगी (96) -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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