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________________ दोनों को संबोधन करके, वस्तु स्वरूप की व्याख्या देशनाकार ने की है। भोगी द्रव्य दृष्टि को समझेगा तो योगी बनेगा और योगी अपने वैराग्य को दृढ़ करके परम उपादेय द्रव्यदृष्टि में लीन होगा तो वही परमात्मा बन पायेगा । परमात्मा और परआत्मा में अन्तर है, पर-आत्मा में और निज-आत्मा में परमात्म स्वरूप को देखना ही द्रव्य दृष्टि है। "जो मैं हूँ वह हैं भगवान्, मैं वह हूँ जो हैं भगवान्। अंतर यही ऊपरी जान, वे विराग यहाँ राग वितान॥ मात्र राग, विराग का अंतर, मेरे में और आप में कोई अन्तर नहीं है। आप 'मैं' तो नहीं बन सकते हो, परन्तु मैं 'आप' नियम से बनूँगा । ओहो! यहाँ भगवान् से भी ऐसे बोला जाता है। हे परमेश्वर! मैं आप हूँ शक्ति रूप, आप मैं हूँ लेकिन आपमें 'मैं' तो भूतप्रज्ञापन नय है, परन्तु हे स्वामी! मैं 'मैं' वर्तमान में हूँ, भविष्य में मैं भी 'आप' हो जाऊँगा लेकिन आपमें कोई सामर्थ्य नहीं बची कि आप मैं हो सको। मैं का मतलब मेरे-जैसे । शुद्धात्मा कभी अशुद्ध होती नहीं।" यह कहकर देशनाकार ने अवतारवाद का खण्डन कर शुद्ध - द्रव्य की त्रैकालिक सत्ता बतलायी है, द्रव्यदृष्टि से । जो आटे में पराठा, पूरी, दूध में घी, तिल में तेल को निहारेगा, देखेगा वही तो उसको बना पायेगा, निकाल पायेगा, खा पायेगा । आटे में पराठा, पूरी बनने की शक्ति को नहीं समझ पाया तो पूरी, पराठा बनायेगा कैसे? 6. उदाहरण. जैन-दर्शन ने क्रमिक विकास का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है, जो बहिरात्मा है, वही अन्तरात्मा और वही परमात्मा बनेगा, पुरूषार्थ पूर्वक, द्रव्य दृष्टि को ज्ञातव्य/ज्ञातत्व बनाकर, पर्याय-दृष्टि से विमुख होगा तो ही अन्यथा नहीं। इसलिए देशनाकार अपनी 'स्वरूप-देशना' में किसी मिथ्यादृष्टि के प्रति भी अशुभ भाव करने के लिए, भगाने के लिए निषेध करते हुए कहते हैं कि ......... .. “कोई मिथ्यादृष्टि भी यहाँ आकर बैठ जाए तो उसके प्रति भी अशुभ-भाव नहीं करना । घोर-मिथ्यादृष्टि भी आकर बैठ जाए उसके प्रति भी अशुभ भाव नहीं करना । ये श्रमण संस्कृति है। ये सिद्ध को सिद्ध नहीं करती, ये असिद्ध को सिद्ध करती है। सूत्र देखो। आप लोग अध्यात्म हो, अध्यात्म नहीं सुन रहे । बीच-बीच में दर्शन चल रहा है। सिद्ध को सिद्ध नहीं करना पड़ता, असिद्ध को सिद्ध करना पड़ता है। प्रसिद्धो धर्मी" " धर्मी प्रसिद्ध होता है। असिद्ध सिद्ध होता है, सिद्ध-सिद्ध नहीं होता.......... लेकिन ज्ञानी जो है वह कहेगा कि असिद्ध प्रसिद्ध होना चाहिए । जो स्वरूप देशना विमर्श (97) 97 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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