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देव की प्रशंसा करने के लिए अपनी अविराम लेखनी को बाधित नहीं किया ।गुणियों के गुणों का गुणगान गाना ही गुणियों का गुण होता है। जैसे जिनसेन स्वामी ने अपने महापुराण के प्रथम पर्व में 93वें श्लोक में कहा है.
_ "भट्टाकलंक श्रीपाल पात्रकेसरिणांगुणाः।
विदुषां हृदयारूढ़ा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः|| 93॥" 6 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' जैसी टीका जिस पर लिखी गयी हो ऐसे परिक्षामुख' ग्रंथ के कर्ता आचार्य भगवन माणिकनंदी स्वामी कहते हैं, “यह जो कुछ भी कहा है, वह मैंने अकलंक महोदधी से प्राप्त किया है।" "हे प्रभु! अकलंक स्वामी! आपने आलौकिक कृपा की है कि ऐसे अनोखे ग्रंथों को देकर चले गए। ऐसे भी लोग होते हैं कि लोग जिसका नाम नहीं लेना चाहते । एक वे लोग हैं जो आज हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु हमारे बीच से बाहर गये नहीं हैं। इन शब्दों में स्वरूप देशना' में भी उल्लेख आया है। 3. स्वरूप संबोधन की भूमिका
सातवीं शताब्दी में हुए आचार्य भट्ट अकलंक देव के टीकात्मक और मूल रूप कई प्रदेय दिये हैं, जैसे आचार्य भगवन् समन्तभद्र स्वामी की 'आप्तमीमांसा' पर आठ सौ श्लोक प्रमाण अष्टशती' टीका की है, जिस पर अष्टसहस्त्री' आठ हजार श्लोक प्रमाण टीका आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने की है। 'तत्वार्थराजवार्तिक'तत्वार्थ सूत्र पर टीकात्मक सृजन आपके द्वारा ही हुआ है। मूलग्रन्थ के रूप में 'लघीयस्त्रय' जिस पर 'न्यायकुमुदचन्द्र' नामक टीका अति प्रसिद्ध है तथा 'न्यायविनिश्चय', 'सिद्धि-विनिश्चय', 'प्रमाण-संग्रह', 'अकलंक प्रतिष्ठा-पाठ', 'बृहस्त्रय', 'न्याय-चूलिका', 'अकलंक स्तोत्र' और 'स्वरूप-संबोधन' आदि साहित्य का कर्तृत्त्व का श्रेय आचार्य भगवन् भट्ट अकलंक देव को ही दिया जाता है। 'स्वरूप संबोधन', एक अलौकिक रचना है, जिसमें न्याय की अनूठी शैली में अध्यात्म परोसा गया है। आज तक हमने आत्मा को मात्र चेतन ही माना, सिद्धों को मुक्त ही स्वीकारा, पर आत्मा चेतनाचेतनात्मक है, सिद्ध मुक्तामुक्त हैं, यह सुना ही नहीं था, परन्तु आचार्य देव ने अपने लेखन में नवीन पक्ष प्रस्तुत किया। कहावत है, कि जिसके पास जो होता है वह वही देता है।
"....... ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धामिदं वचः॥"" , जो स्वयं न्याय चूड़ामणी हों वह भले ही अध्यात्म लिखें परन्तु वह न्याय-शून्य अध्यात्म कैसे लिख पाते? आचार्य भट्ट अकलंक देव मानो अध्यात्म में न्याय मिश्रित स्वरूप देशना विमर्श
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