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________________ 3 स्याद्वादी जैन विद्यार्थी है। जैनियों का विशेष - विरोध होने से अपना नाम, धर्म छुपाकर जैनियों को पढ़ाई करनी पड़ी, अन्यथा धर्म परिवर्तन का भय था । शंका के निरसन के लिए परीक्षा करना प्रारम्भ किया, अरिहंत की प्रतिमा को ज़मीन पर रखा और उसे लांघने के लिए कहा गया तब दोनों भाईयों ने एक धागा डालकर उसे लांघ लिया । पुनः परीक्षा हुयी - वसतिगृह में रात के समय भयंकर आवाज की गयी, जिससे डरकर उन्होंने भगवान अर्हन्त का नाम लेना प्रारम्भ किया, अतः वह पकड़े गये पर बंदीगृह से भी भाग गये, परन्तु खोज में पीछे से सैनिक भेजे गये। अकलंक छिप गये और निकलंक को प्राण खोने पड़े। अनुज के सिर विहीन धड़ को देखकर संकल्प किया कि इन रक्तांबरों को देश से बाहर निकाल कर रहूँगा। यह था 'दृढ़ धम्मो पिय्य धम्मो ́ धर्म प्रिय होना चाहिए और धर्म में दृढ़ होना चाहिए । भट्ट अकलंक देव ने अपनी प्रतिज्ञा कि पूर्ति के लिए अनेकों शास्त्रार्थ किये, उसमें प्रसिद्ध रतनसंचपुर नगर का है। 'हिमशीतल राजा की रानी मदन सुन्दरी जिनदेव का रथ निकालना चाहती थी, पर बुद्ध - गुरु का कहना था, जब कोई जैन गुरु उसे शास्त्रार्थ में पराजित करेगा तभी रथ निकल पायेगा। अकलंक स्वामी ने स्वीकार किया - छह माह तक शास्त्रार्थ चला जिन-शासन रक्षक देवी ने स्वप्न में साक्षात्कार देकर वास्तविकता ( तारादेवी) का ज्ञान कराया। बौद्ध गुरु ने घट में तारादेवी को स्थापित करके रखा था, तब अंकलंक देव ने तारादेवी को प्रताड़ित कर परास्त कर दिया और जैन धर्म की जय जयकार हो गयी। ऐसी अनेक कथायें तार्किक शिरोमणी भट्ट अकलंक स्वामी के जीवन की सुमनावलियां बनी थी । बौद्ध नैय्यायिक हावी होने पर भी भट्ट अकलंक देव ने नमोऽस्तु शासन की ध्वजा को इस प्रकार ऊँचाई दिलाई। वह युग भी 'अकलंक युग' नाम से प्रचलित हो गया और रक्तांबरों को देश छोड़ना पड़ा । * यह जो आचार्य भगवन का न्याय / दर्शन क्षेत्र में विशेष योगदान रहा, . उसमें अत्यन्त महत्वपूर्ण ‘सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष' जिससे इस 'नमोऽस्तु शासन' में उन्हें मेरूदण्ड बना दिया। सिद्धान्त में विरोध ना आये और जन सामान्य का लोकव्यवहार भी निर्विवाद चलता रहे इसलिए उन्होंने 'सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष' का प्रतिपादन किया । यह सिद्धान्त से तो परोक्ष ही है, इन्द्रिय मन से होने के कारण जन-सामान्य को समझाने के लिए उसे प्रत्यक्ष नहीं पर व्यवहारिक - प्रत्यक्ष का रूप दिया। जिसे उत्तरवर्ती सभी आचार्यों ने एक स्वर से स्वीकार किया । ”प्रमाणमकलंककस्य. .." कहकर अनंतर काल में भी उनकी अच्छी प्रसिद्धि थी, क्योंकि सिद्धान्त और न्याय के वह विशेष ज्ञाता थे। अपरवर्ती आचार्यों ने अकलंक 92 Jain Education International For Personal & Private Use Only • स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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