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प्रत्येक दर्शन, धर्म-पक्ष को स्थापित करने में तर्क, न्याय की भी अपनी अहम भूमिका होती है। 'नीयते परिच्छिद्यते वस्तु तत्त्वं येन स न्यायः।' भ्वादिगण की 'नी' धातु ले जाने के अर्थ में आती है। ‘नौका की तरह समुद्र पार ले जा सके वह न्याय है।' 'अन्याय को दूर करना न्याय है।' न्याय का प्रणयन, आश्रय सभी दर्शनों (पक्षों) ने अपने-अपने प्रकार से किया है।
जैन न्याय इन सभी दर्शनों में वैशिष्ट्य को प्राप्त है जिसे सम्प्रति में भगवत् कुन्द-कुन्द, अकलंकादि आचार्यों ने लीपिबद्ध कर पारायण हेतु प्रस्तुत किया। जैन-न्याय अपनी अनेकान्तमयी – स्याद्वादी शैली से प्रख्यातता को प्राप्त हुआ। “परस्पर-विरोधी अनेक अन्त अर्थात् धर्म विद्यमान होने वाली वस्तु को तद्रूप अपनी दृष्टि में लाना अनेकान्त दृष्टि है। उन्हीं धर्मों में से किसी एक धर्म का सापेक्ष कथन करना कथंचित् अर्थात् किसी अपेक्षा से (किञ्चित्) वस्तु/द्रव्य ऐसी और अन्य अपेक्षा से ऐसी स्याद् अस्ति, स्याद् नास्ति, स्याद् नित्य, स्याद् अनित्य आदि वचन प्रणाली ही स्याद्वाद वाणी-स्याद्वाद शैली है। जो कि जैन-दर्शन का प्राण
2. आचार्य भट्ट अकलंक देव मूल ग्रन्थकर्ता-एक दृष्टिक्षेप ____ 'नमोऽस्तु-शासन' की धर्म-ध्वजा को तीर्थंकर भगवंत, केवली भगवंत, श्रुत केवली भगवंतो के उपरांत हमारे अनेकान्त धुरंधर मनीषी, श्रुतधर आचार्यों ने जयवंत किया। जैन न्याय का लेखनरूप उद्योतन भगवत् कुन्दकुन्द स्वामी, उमास्वामी आदि आचार्यों ने किया। भवगत् समन्तभद्र स्वामी, भगवत सिद्धसेन स्वामी ने उस बीजरूप वृक्ष को पुष्पित-पल्लवित किया। इसी क्रम में 'सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का प्रतिपादन करने वाले आचार्य भगवन् भट्ट अकलंक स्वामी वट-वृक्ष फलित हुये, ऐसा कहो कि वे जैन-दर्शन के मेरूदण्ड बन गये।
आचार्य भगवन भट्ट अकलंकं स्वामी ने प्रारम्भ से ही अपना जीवन न्याय एवं जैन-दर्शन के लिए दिया ।म्यानखेट नगर के राजा शुभतुंग के मंत्री पुरूषोत्तम हुए, जिनके दो पुत्र, अकलंक-निकलंक हुए । विद्याध्यन की ललक से उन्होंने महाबोधि विद्यालय, जो कि बौद्ध-दर्शन का था, वहीं शास्त्रों का अध्ययन करना प्रारम्भ किया । बौद्धों का विशेष जोर होने से अन्य कोई संस्था / विद्यालय नहीं था जहाँ इच्छित शिक्षा मिलती हो । एक दिन कक्षा में एक दिन शिक्षक सप्तभंगी सिद्धान्त समझा रहे थे, परन्तु वहाँ जैन-दर्शन की पुष्टि न हो जाए, अतः विपरीत कथन कर शिक्षक बाहर चले गये और जैसे ही शिक्षक कक्षा से बाहर गये, अकलंक ने श्याम-पट पर सूत्र शुद्ध कर दिया। देखते ही शिक्षक समझ गये कि यहाँ कोई स्वरूप देशना विमर्श
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