________________
स्वरूप-देशना में द्रव्य दृष्टि-,
पर्याय दृष्टिएक विवेचना
-प्रस्तुतिः श्रमण मुनि सुप्रभसागर (संघस्थ-आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज) अनेकान्तात्मकं उक्तं कर्म कलंक शान्तये।
कल्याणकारि तेऽस्माकं, जयेत् नमोऽस्तु शासन॥ 1 1. जैन धर्म-दर्शन पक्ष
इस विश्व में या तीन लोक में अगर कोई सनातन धर्म, दर्शन,शासन है तो वह एक मात्र अर्हत् जैन दर्शन, नमोऽस्तु शासन है। मात्र दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति ही अनादि अपर्यवसान रूप स्वीकार की है, क्योंकि यहाँ किसी एक ईश्वर को विश्व का कर्ता-हर्ता नहीं स्वीकारा गया और न ही विश्व को एक ब्रह्ममय स्वीकारा, परन्तु फिर भी एक ब्रह्म के अस्तित्व को नहीं नकारा । 'एक्को खलु ब्रह्म द्वितीयो नास्ति' उक्ती का भी अनेकान्तमयी जैन दर्शन की स्याद्वाद् शैली से कथन हो तब तो ठीक है, परन्तु भिन्न मतावलम्बियों के एकान्त से मान्य नहीं है। क्योंकि जैन दर्शन एक ब्रह्म-तत्त्व को तो स्वीकारता है, पर सत् अपेक्षा । प्रत्येक द्रव्य की सत्ता त्रैकालिक है, वही सत् है, सत्य है जिसे संग्रह नय से एक ब्रह्म रूप माना है। अन्य मतावलंबियों की मान्यता है कि सृष्टि का कर्ता-हर्ता एक ईश्वर (ब्रह्मा) है और शेष जीव उसी के अंश हैं परन्तु ऐसा कदापि नहीं है। हमारे पूर्वाचार्यों ने अष्टसती अष्टसहस्त्री, प्रमेयकमल-मार्तण्ड आदि ग्रंथो में कर्त्तावाद, अवतारवाद एकेश्वरवाद का पुरजोर खण्डन किया है तथा द्रव्य की त्रैकालिक सत्ता का (सत्) मण्डन किया है, वस्तुतः यही द्रव्य-दृष्टि है। ___जैन दर्शन में जीव द्रव्य का क्रमिक विकास ही स्वीकार किया है। जो बहिरात्मा है वही अन्तरात्मा बनकर पुरूषार्थ पूर्वक परमात्मा बनता है। उक्त अपेक्षा से वह कर्ता भी है, परन्तु स्व का पर-द्रव्यों का नहीं (परमार्थ दृष्टि से)। सम्प्रति काल तक जो अनंतानंत चौबीसियाँ हुई है, उन्होंने किसी सिद्धान्त की स्थापना नहीं की है और न ही वस्तु-व्यवस्था को स्थापित किया है- अपितु वस्तु-व्यवस्था अरू सिद्धान्तों का व्याख्यान किया है, क्योंकि वस्तु व्यवस्था तो त्रयकालिक व्यवस्थित ही है।
अतः परमागम के कर्तृत्व को भी हम अपने इष्ट अरिहंत-सिद्धों को नहीं सौंपते । उनका मात्र उपदेश देने का कर्तृत्वपना मानते हैं, वह भी मात्र व्यवहार से, परन्तु फिर भी जो है, सो है'। (90
-स्वरूप देशना विमर्श
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org