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णिव्वावइत्तु संसार महग्गिं परमणिव्वुदिजलेण । णिव्वादिसभावत्थो गदजाइजरामरणरोगो ॥ भाग. आ. 2136
इसी प्रसंग में अरिहन्तों का स्वरूप भी दृष्टव्य है
णट्ठचदुघइकम्मो दंसण सुहणाणवीरियमइओ । सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो ॥ द्रव्य संग्रह, 50 • इय घाइकम्ममुक्को अट्ठारह सवज्जिओ सयलो । तिहुवण भवणपदीवो देउममं उत्तमं बोहिं ॥ भाव पाहुड, 152
शंकराचार्य के अनुसार मुक्ति जीव की ब्रह्मदशा प्राप्ति का नाम है। परन्तु रामानुज मुक्त जीव एवं ब्रह्म की पृथक सत्ता स्वीकार करते हैं। रामानुज वेदान्त में जहाँ मुक्त जीव का चन्द्रादिलोकगमन संगत है वहाँ शंकर वेदान्त में मुक्त जीव की परलोकादि गमनशीलता का पूर्णतया निराकरण किया गया है (ब्र.सू. शं भाष्य 4-37)। शंकराचार्य जीवन्मुक्ति एवं विदेहमुक्ति दोनों के समर्थक हैं जबकि रामानुजाचार्य केवल विदेह मुक्ति को ही स्वीकार करते हैं। इसी तरह मायावाद में भी उनमें मतभेद हैं। शंकर का अद्वैतवाद मायावाद पर ही आधारित है । उनके अनुसार जगत मायावी परमेश्वर की शक्ति है। यह शक्ति सत्-असत् से विलक्षण होने के कारण अनिर्वचनीय एवं मिथ्या है। रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतावाद सिद्धान्त मायावाद की ही प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुआ है। उन्होंने जगत को सिद्ध किया है। साथ ही भक्ति को ज्ञान एवं कर्म का समन्वय माना है ।
इससे अधिक लिखना यहाँ अप्रांसगिक होगा। शंकर का वेदान्त और | रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद दर्शन का गम्भीर विषय है जो ऊहापोह का विषय तो हो सकता है पर उसका सीधा सम्बन्ध सिद्धावस्था से अधिक नहीं है। बस इतना ही है कि सिद्ध को कंथञ्चित, मुक्त और कथञ्चित अमुक्त रूप वेदान्त की जीवन्मुक्त एवं विदेहमुक्त अवस्थाओं के साथ काफी रूप में समानता दृष्टव्य है।
स्वरूप देशना विमर्श
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