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केवली, अन्ततःकृत केवली, मूक केवली आदि तेरहवें गुणस्थानवर्ती होने से अर्हन्त केवली हैं तथा सिद्ध केवली अरहन्त केवली हैं। अर्थात् सिद्ध केवली अवस्था भेद से कथंञ्चित मुक्त हैं और कथञ्चित् अमुक्त है।
इसी तरह का सिद्धान्त अद्वैत वेदान्त में भी मिलता है।तुलनात्मक दृष्टि से हम उस पर भी एक दृष्टिपात कर लें।
वेदान्त दर्शन में मुक्ति के स्वरूप पर विस्तार से विवेचन मिलता हैं। उसके बीज उपनिषदों में मिलते हैं अवश्य, पर उनका परिवाक शांकर वेदान्त में ही हुआ है। वेदान्त के अनुसार आत्मबोध न होने के कारण व्यक्ति अविद्या के कारण मिथ्या सम्बन्ध स्थापित कर लेता है जो बन्धन के कारण है। बन्धन की यह मूलभूत कारणात्मक प्रवृत्ति की जब निवृत्ति हो जाती है तभी जीव मुक्त कहलाता है। परन्तु बन्धन एवं मोक्ष की व्यवस्था पारमार्थिक न होकर मायिक ही है। शंकराचार्य ने उसे पारमार्थिक, कूटस्थ, नित्य, आकाश के समान सर्वव्यापी, निष्क्रिय, नित्य तृप्त, निरवयव और स्वयं ज्योति स्वभाव कहा है। इसी अशरीरी स्थिति को उन्होंने मोक्ष कहा है (ब्रह्म सूत्र,शा.भा.1.14)
शांकर वेदान्त में मुक्ति के जीवन्मुक्ति और विदेह मुक्ति ये दो भेद मिलते हैं। अविद्या की निवृत्ति और ब्रह्मबोध होने पर कर्मादि का बन्धन समाप्त हो जाता है पर प्रारब्ध कर्मों का भोग समाप्त नहीं होता और मुक्त पुरुष को जीवन धारण करना ही पड़ता है। उसके समाप्त होते ही उसका देह नष्ट हो जाता है और वह विदेह केवल्य की उपलब्धि करता है। वही विदेह मुक्ति है। जैन परम्परा में इसी को सिद्ध केवली कहा है जो अवस्था भेद से कथञ्चित् मुक्त है और कथंञ्चित् अमुक्त है। ___ शंकराचार्य के इस सिद्धान्त का विरोध उनके उत्तरकालीन अनुयायी आचार्यों ने किया। सर्वाज्ञात्म मुनि तो जीवन्मुक्ति को ही अस्वीकार करते हैं। उनका तर्क है कि तत्त्व साक्षात्कार हो जाने से लेश रूप से भी अविद्या की अनुवृत्ति नहीं हो सकती। विद्यारण्य, मण्डनमिश्र आदि विद्वानों ने भी इस सिद्धान्त पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है।परन्तु शंकराचार्य अविद्या की पूर्वनिवृत्ति के पक्षधर हैं।
आचार्य भर्तृप्रपञ्च का दार्शनिक सिद्धान्त भेदाभेदमाद या द्वैताद्वैतवाद अथवा अनेकान्तवाद कहा जाता है। उनके अनुसार परमार्थ में एकत्व भी है और अनेकत्व
स्वरूप देशना विमर्श
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