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________________ के आचरण से त्रियोग का व्यापार चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है और अन्तिम समय में उन अघातिया कर्मों का मन्द उदय होने पर चारित्र में दोष का अभाव होने से अयोगी जिन मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं (द्र.सं० टीका, 13)। आचार्य विशुद्ध सागर जी ने इसी अशरीरी सिद्ध पर्याय को कार्य समयसार कहा है। (पृ० 49)। जैनेन्द्र व्याकरण में इसी पर्याय को 'स्वतंत्रतः कर्ता' कहा गया है। सयोग केवली और अयोग केवली प्रत्येक शरीर वाले होते हैं, क्योंकि उनका निगोद जीवों के साथ सम्बन्ध नहीं होता। भाव मोक्ष, केवल ज्ञान की उत्पत्ति, जीवन्मुक्त और अर्हन्तपद के सभी शब्द समानार्थक हैं। जो अष्टविध कर्मों से रहित हैं, अत्यन्त शान्तिमय हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, आठ गुणों से युक्त हैं, कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं। अट्ठविहकम्मवियडा सीदीभूदा निरंजणा णिच्चा। अट्ठगुणा कदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा॥ (सि.भ.). अर्हन्त का तात्पर्य है ऐसा साधक जिसने घातिया कर्मों को नष्ट कर केवल ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को हस्तामलकवत् देख लिया है- खविदद्यादिकम्मा केवलणाणेण दिट्टसवट्ठा अरहता णाम (धवला बंधस्वामित्व०, तीर्थंकर बंधकारण०)। अर्हन्त 46 मूल गुणों से संयुक्त रहते हैं उत्कृष्टता की अपेक्षा से। अनुत्कृष्टता की अपेक्षा से हीन गुणवाला भी अर्हन्त होता है। चार घातिया कर्मों में मोह प्रबलतम कर्म है। वह केवल ज्ञानादि सम्पूर्ण आत्म गुणों के आविर्भाव को अवरूद्ध कर देता है। साधारणतः मोहनीय ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के विनाश का उपदेश दिया जाता है। यह इसलिए कि शेष सभी कर्मों का विनाश इन तीन कर्मों का नाश होने पर अवश्यम्भावी है। ___ अन्तरायकर्म का विनाश शेष तीन घातिया कर्मों के विनाश का अविनाभावी है और अन्तराय कर्म का विनाश होने पर अघाति कर्म भ्रष्टबीज के समान निःशक्त हो जाते हैं। संयोग और अयोग दोनों प्रकार के केवली अर्हन्त होते हैं। 46 गुणों में से जो अन्तरंग गुण हैं वे समान रूप से सभी अर्हन्तों में पाये जाते हैं तथा जो बहिरंग (जन्म के दस अतिशय आदि) हैं उनमें हीनाधिकता हो सकती है। यही केवली जब गुणस्थान को पार कर लेते हैं तब उन्हें सिद्ध कहा जाता है। तीर्थंकर केवली उपसर्ग (86 -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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