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प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य इसी लक्ष्य को स्पष्ट करना है । अनेकान्तवाद के आधार पर स्वरूप सम्बोधन में सिद्ध के इसी मुक्तामुक्त रूप को प्रस्थापित किया गया है ।
जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति स्वयं रत्नत्रयी साधना करता हुआ अन्तरात्मा से परमात्मा बन सकता है। उस परमात्मा की दो अवस्थाऐं हैं- प्रथम सशरीरी जीवन्मुक्त अवस्था और द्वितीय अशरीरी देह मुक्त अवस्था । प्रथम अवस्था को अर्हन्त और द्वितीय अवस्था को सिद्ध कहा जाता है । अर्हन्त दो प्रकार के होते हैंतीर्थंकर और सामान्य । तीर्थंकरों के पंचकल्याणक होते हैं और शेष सभी सामान्य
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अर्हन्त की श्रेणी में आते हैं उन्हें केवली भी कहा जाता है। ये केवली ज्ञानावरण का अत्यन्त क्षय हो जाने के कारण अनन्त ज्ञानी और परम आत्मज्ञानी होते हैं
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तं सुद केवलिमिसिणो भणति लोयप्पईवयरा । (स. सार.! .9)
केवलियों के अनेक भेद होते हैं। उनमें तद्वस्थ केवली वे हैं जो जिस पर्याय में केवल ज्ञान प्राप्त हुआ उसी पर्याय में अवस्थित रहते हैं और सिद्ध जीवों को सिद्ध केवली कहा जाता है (क. पाहुड. 1. 311 ) ।
आचार्य अकलंक देव ने ऐसे ही अक्षय परमात्मा को नमन किया है। जो फिर कभी वापिस नहीं आता चाहे कितने ही कल्पकाल बीत जायें या प्रलय हो जाये (काले कल्पशतेऽपिच, र.श्राव. ( 33 ) । यह कथन अवतारवाद के खण्डन में दिखाई देता है । आत्मा का स्वभाव परभावों से अत्यन्त भिन्न है। (आत्मस्वभावं परभावभिन्नम्) । यहाँ ज्ञानमूर्ति अशरीरी सिद्ध का वैशिष्टय दृष्टव्य है ।
समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों को एक साथ एक काल में, सर्वथा निर्मूल करके मेघपटल से निकले हुए सूर्य के समान केवल ज्ञान की किरणों से लोकालोक के प्रकाश के तेरहवें गुणास्थानवर्ती जिन को सयोगी केवली कहा जाता है। (पंचसंग्रह, प्राकृत, 1.27-30; द्रव्यसंग्रह टीका, 13.35 ) । जिनके पुण्य-पाप के जनक शुभ-अशुभ योग नहीं होते वे अयोगी केवली कहे जाते हैं। सकल कर्मों से मुक्त होने पर वह आत्मा चतुर्दश गुणस्थानवर्ती हो जाता है और सम्पूर्णतः ज्ञानशरीरी बन जाता है। इसी को अकलंक देव ने 'ज्ञानमूर्ति' ( पद्य, 1) कहा है । सयोग केवली के चारित्र मोह का उदय नहीं रहता, फिर भी निष्क्रिय आत्मा
स्वरूप देशना विमर्श
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