________________
स्वरूप-सम्बोधन के आधार पर सिद्ध परमात्मा मुक्त हैं या अमुक्त?
एक ऊहापोह
- -डा० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' आचार्य अकलंक जैन न्याय के पितामह कहे जा सकते हैं। उन्होंने सातवींआठवीं शती में जैन दर्शन को नई पहचान दी और लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाण संग्रह, तत्त्वार्थ वार्तिक, अष्टशती जैसे ग्रंथों की रचना कर न्याय के क्षेत्र को संबधित किया। उन्हीं की अन्यतम कृति “स्वरूप-सम्बोधन” पच्चीस पद्यों की भले ही हो (स्वरूप सम्बोधन पञ्च विंशतिः, मंगलरूप पद्य 26) पर वह न्याय विद्या का अवलम्बन करने वाली। स्वरूप देशना के क्षेत्र में एक ऐसी अनुपम कृति है जो साधक को परमात्म सम्पदा प्राप्त कराने में अहं भूमिका अदा कर सकती है।
स्वरूप सम्बोधन में आचार्य अकलंक देव ने 'स्व' के यथार्थ रूप को पहचानने की अभिव्यक्ति दी है। इस सदर्भ में उसका मंगलाचरण उल्लेखनीय है
मुक्तामुक्तैकरूपो यः कर्मभिः संविदादिना।
अक्षयं परमात्मानं ज्ञानमूर्ति नमामि तम्॥ इसमें आचार्य अकलंक देव ने उस परमात्मा को नमस्कार किया है जो कर्मों से तथा सम्यग्ज्ञान आदि से क्रमशः मुक्त और अमुक्त होता हुआ एक रूप है, अविनाशी है, ज्ञानस्वरूप है। इस पर प० पू० आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने ‘स्वरूप देशना' प्रवचन के माध्यम से समूचे सम्बद्ध विषय को स्पष्ट करने का श्लाघ्य प्रयत्न किया है। आचार्य अकलंक देव ने इस मंगलाचरण में मुक्त सिद्धों के साथ ही अमुक्त सिद्धों को भी नमस्कार किया है। इसलिए उनकी दृष्टि में सिद्ध कथञ्चित् मुक्त हैं और कथञ्चित् अमुक्त हैं। उनकी मुक्तामुक्त अवस्था ही वन्दनीय है। व्यवहार नय से पंचपरमेष्ठी ही वन्दनीय हैं। निश्चयनय से निज धुवात्मा ही वन्दनीय है। वे सिद्ध परमष्ठी कर्मों की अपेक्षा से मुक्त हैं और अनन्त ज्ञानादिक गुणों की अपेक्षा से अमुक्त हैं।
(84
-स्वरूप देशना विमर्श
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org