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१६०. श्रीनेमिनाथस्तोत्रसङ्ग्रहः भवणवई-वाण-जोसिमज्झि वेमाणीयसुरभवि, न हि चउलक्खा जीव जोणि साया सुह कत्थ वि ।।७।। भरहेरवय-विदेह पंचदस कम्महभूमि, जिणवरदेव-सुसाहु-धम्म लब्भइ सुह कम्मिई । . अंतरदीव छपन्न तीस सुरभोग समाणा, जिणमयि कहीअ अकम्मभूमि लहीइं सुह दाणा ।।८।। चउदस लक्खा जीवजोणि हउं नरभवि सहीउ, इणि परि जीवहं जोणि लक्ख चउरासी भमीउ। पूरिअ पुग्गल वारऽणंत सामी मई दुहभरि,
सुकय पसाइं दिट्ठ देव सिरिरेवयगिरि सिरि ॥९॥ वस्तु :- .
तिजयसामीय ! तिजयसामीय ! निसुणि जिणनाह !, चउगइ भवि इम भमिउ जीव जोणि हठं लक्ख चउरासीय । . छुह-तण्हा-जम्म-जर-मरण रासिइं दुक्खाण पासीय, पूरिअ चऊदरज्ज इम सामी ! वार अणंत,
भमतां भायगि भेटीउ भवभंजण भगवंत ॥१०॥ भाषा :
हिव हउं जिम नव-नव रूप वेसि, लही बायर सुहम देसप्पएसि । जेहिं अणुबद्धउ भवमज्झारि, भमीउ भवउदहि अणोरपारि ॥११॥ नवि पामिउ जहं कह वि पार, हउं वीनवउं सामी तीहं पयार । मूल पगई य अट्ठकम्म हुंति, भेया पुण अडवन सय लहंति ॥१२॥
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