________________
स्वमनोविज्ञप्तिगभितं श्रीनेमिजिनस्तवनम् • १५९ हरिकुलगयणविभासभाणु जय जय सिरिनाह !, जय जय तिहुअणकामकुंभ जय पुन्नपवाह ॥१॥ [चन्द्रलेखा] रेवयगिरिवरतित्थरायसिरि मउडसमाण !, जय जय दुज्जय मोहजोहमयनिज्जिअमाण ! । दुक्खदवानलसजलमेह निअदेहपहाभरतज्जिय कज्जल कसिणकाय ! जय जय जणसुहकर ! ॥२॥ सामीय सिवपुरनयरनाह ! असिरण जणसिरण !, भवतरुभंजण ! अंतरंगरिउदलबलगंजण ! । करुणासायर ! भुवणराय ! अवधारु सामी !, वीनती कर जोडि दोइ करुं निअसिरनामी ॥३॥ पढम निगोअ अणाइ-अणंत ओसप्पिणि वसिउ, जम्मण-मरणिई सयललोअ सामी ! मई फसिउ । बायरआदिनिगोदमज्झि रहिउ काल अणंत, छेयण-भेयण-ताव-सीय दुहकोडि सहंत ॥४॥ विवहारिइं कह कहवि पत्त पुढवी जलण, जोणी लक्ख सत्त सत्त हउं भमीउ पवण । वणसइ पत्त-अणंत माहि दस-चउदसलक्खा , बि-ति-चउरिंदी-विगलि लक्ख जोणी दो दो संखा ।।५।। भमीउ काल असंख-संख तुह आणविहीणु, दुक्ख असंख सहंत तत्थ भुवणत्तयि दीणु । जल-थल-नहचर उरग-सप्पर भुअपरि तिरीया गयि, बंधणं-ताडण-वहणदुक्ख अणुहूअ संखागय ॥६॥ रयणपहाई य नरय सत्ति हउं भमीउ रंक, तुह आणा विणा जोणि लक्ख चउ चउ गय संक ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org