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आगम
(०५)
"भगवती”- अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२०], मूलं [७११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०५], अंग सूत्र - [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७११]
दीप अनुक्रम [८५६]
माई पुषकोडीपुहत्तमभहियाई ७, सो चेव जहन्नकालट्ठितिएसु उवव० एस चेव वत्तवया नवरं कालादेसेणं] जहन्नेणं पुषकोडी अंतोमुहसमन्महिया उकोसेणं चत्तारि पुषकोडीओ चाहिं अंतोमहत्तेहिं अम्भहियाओ ८. सो चेव उक्कोसकालट्ठितिएम उववन्नो जहन्नेणं तिपलिओचमट्टिती उकोसे तिपलिओवमहि अवसेसं तं। चेव नवरं परिमाणं ओगाहणा य जहा एयरसेव तइयगमए, भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादे० जहर |तिन्नि पलिओवमाइं पुवकोडीए अभहियाई उक्कोसे० तिन्नि पलिओवमाई पुषकोडीए अम्भहियाई एवतियं ९॥ | जइ मणुस्सहिंतो उववजंति किं सन्निमणु० असन्निमणु.१, गोयमा! सन्निमणु असन्निमणु०, असन्निम|णुस्से णं भंते ! जे भविए पचिंदियतिरिक्व० उवव० से णं भंते ! केवतिकाल., गोयमा ! जह• अंतोमु०
उको पुचको आउएमु उबवजंति लद्धी से तिसुवि गमएमु जहा पुढचिकाइएसु उववज्जमाणस्स संवेहो जहा | एत्य चेव असन्निपंचिंदियस्स मज्झिमेसु तिमु गमएस तहेव निरवसेसो भाणियचो, जइ सन्निमणुस्स.किं | संखेजवासाउयसन्निमणुस्स० असंखेजवासाउय?, गोयमा ! संखेजवासा० नो असंखे०, जइ संखेजा कि | पजत्त० अपजत्त०१, गोयमा ! पजत्त० अपज्जत्तसंखेजबासाउथ०, सन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए पंचिंदि० |तिरिक्ख० उवव० से णं भंते ! केवति०१, गोयमा ! जह• अंतोमु० उक्कोतिपलिओवमद्वितिएसु उव०, ते
णं भंते ! लद्धी से जहा एयरसेव सन्निमणुस्सस्स पुढ विकाइएसु उववजमाणस्स पढमगमए जाव भवादेसोत्ति | कालादे०जह दो अंतोमु० उको तिन्नि पलि० पुवकोडिपुत्तमम्भहियाइं १, सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उबवन्नो ||
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