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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् ८७ वा। लौमहर्षणेन वायुपुराणेन नौग्रश्रवसेन शिवपुराणेन वा इत्थं ब्रह्मवैवर्त्तादावपि बोध्यम् । एतेषां चोत्तरोत्तरमनेककर्तृकाणां तस्मैः तत्र तत्र पुराणेतरविषयैः समुपवृंहितरूपत्वेऽपि वस्त्रायुधालङ्काराद्यावृतदेवदत्तशरीरस्य देवदत्तशरीरत्वतत्व न विहन्यते इत्युक्तं प्राक् । यथैकैकस्मिन् व्याकरणे कर्त्रादिभेदाद् ग्रन्थबाहुल्येऽपि व्याकरणाष्टसंख्या न विहन्यते। एवम् एकैकस्मिन् पुराणे कर्त्रादिभेदाद् ग्रन्थबाहुल्यातपुराणाष्टादश- संख्या न विरुध्यते इत्यपि । ब्रह्मादिसूतान्तानामनेकेषां तत्र तत्र प्रवचनकर्तृत्वेनाख्यानात् । सूतप्रवचनेऽपि द्वैविध्यं भवति लोमहर्षणोग्रश्रवसोः सूतयोः कालभेदेन प्रवक्तृत्वात्॥ सृष्टिविद्यायाः प्रकारभेदेनानेकधा दर्शयितुं शक्यत्वान्मन्त्रब्राह्मणेषु निदर्शितानामष्टादशानां सृष्टिकल्पानामनुरोधेन सिद्धाया अष्टादशसंख्यायास्तादृशपुराणविद्यानिष्ठत्वेऽपि तत्तदनेककर्तृकनानानिबन्धपरिच्छेदकत्वाभावात् ॥ तस्मात् संभवन्ति शतशः पुराणनिबन्धाः अथाप्यष्टादशैव पुराणानीति सिद्धम् । अत एवोत्तरकालेऽपि कालेकाले तानेवाष्टादशसृष्टि से अथवा उग्रश्रवा के श्रीमद्भागवत से, लोमहर्षण के वायुपुराण से अथवा उग्रश्रवा के शिवपुराण से । इस प्रकार ब्रह्मवैवर्त आदि में भी जानना चाहिए । इनके उत्तरोत्तर अनेक कर्त्ता होने पर भी जहाँ-तहाँ पुराण से इतर विषयों के द्वारा परिवर्द्धित होने पर भी इन पुराणों का वस्त्र-शस्त्र अलङ्कार आदि से आवृत देवदत्त के शरीर का देवदत्त शरीरत्व समाप्त नहीं होता वैसे ही पुराणत्व नष्ट नहीं होता है ऐसा पहले कहा जा चुका है। जिस प्रकार एक ही व्याकरण विषय में प्रवक्ता आदि का भेद होने पर ग्रन्थों की बहुलता से व्याकरण की आठ संख्या का विघात नहीं होता है इसी प्रकार एकएक पुराण में कर्त्ता अवान्तर विषय आदि भेद होने से पुराण की अठारह संख्या विरोध नहीं होता क्योंकि ब्रह्मा से लेकर सूत तक अनेक प्रवचन कर्त्ताओं के कथन का उल्लेख है । केवल सूत का प्रवचन होने पर भी द्वैविध्य हो जाता है क्योंकि लोमहर्षण और उग्रश्रवा दोनों सूत काल भेद से प्रवक्ता थे। सृष्टि विद्या के प्रकार भेद से अनेक प्रकार का बतलाना सम्भव होने पर मन्त्र ब्राह्मण में निदर्शित अठारह प्रकार के सृष्टि कल्पों के अनुरोध से सिद्ध अठारह की संख्या होने पर उतने ही पुराणों की संख्या तक सीमित होने पर भी उनके अनेक कर्त्ताओं के सैकड़ों पुराण निबन्ध होने पर भी अठारह पुराण ही है ऐसा सिद्ध है । इसीलिए उत्तरकाल में भी समय-समय पर भी उन्हीं अठारह सृष्टिकल्पों का आलम्बन कर कतिपय पुराण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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