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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् स्यापीदानीमुपलभ्यमानस्य सौतिशौनक-संवादमुखेन प्रवृत्ततत्वादौग्रश्रवसत्वमवधार्यते लोमहर्षणसौतित्वसंभवेऽपि सुप्रसिद्धपदार्था ये स्वतन्त्रा लोक विश्रुताः। . शास्त्रार्थ स्तेषु कर्तव्यः शब्देषु न तदुक्तिषु॥ . इति न्यायेनात्र पुराणे उग्रश्रवसोरेव सूतपदेन ग्रहणात् सौतिपदेन चोग्रश्रवस एव ग्रहणौचित्यात्। न चेत्थं सति पाद्मविरोधः। तत्रैवोग्रश्रवसा प्रोक्ते पाने पाद्यस्य लोमहर्षणप्रोक्तत्वप्रतिपादनादवश्यं लोमहर्षणप्रोक्तानामपि केषांचित्पुराणानामुत्तरकाले उग्रश्रवःप्रोक्तत्वनिबन्धवत्वावगमात्। तदित्थमेतेष्वष्टादशपुराणेषु केषांचिल्लोमहर्षणप्रोक्तत्वमेव॥१॥ केषां चिदुग्रश्रवःप्रोक्तत्वमेव॥२॥ केषांचिदुभयप्रोक्तत्वान्निबन्धद्वैधम्। केषांचित्तूभयानुक्तत्वादन्यप्रोक्तत्वमेव॥३॥ यत्र निबन्धद्वैधं तत्रान्यतरगणनया अष्टादशसंख्यापूर्तिः क्रियते। यथा लोमहर्षणपाखेनौग्रश्रवसः पाद्येन वा। लोमहर्षणेन देवीभागवतेनौग्रश्रवसेन श्रीमद्भागवतेन लोमहर्षण का सौतित्व सम्भव होने पर भी एक न्यायविशेष से यहाँ पुराण वाङ्मय में लोमहर्षण तथा उग्रश्रवा का सूत शब्द से ग्रहण किया जाने से सौति शब्द से केवल उग्रश्रवा का ही ग्रहण करना उचित है। वह न्याय यह है कि स्पष्ट अर्थ वाले लोक व्याप्त सुप्रसिद्ध पदार्थ स्वतन्त्र हों तो उनमें शास्त्रार्थ होना चाहिये न कि शब्दों में अथवा उनसे सम्बद्ध अन्य उक्तियों में। ऐसा होने पर पद्मपुराण से कोई विरोध नहीं है क्योंकि उग्रश्रवा के द्वारा प्रोक्त पद्मपुराण में उसका लोमहर्षण के द्वारा भी प्रोक्तता का प्रतिपादन होने के कारण अवश्य लोमहर्षण के द्वारा कहे हुए कुछ पुराणों का भी उत्तरकाल में उग्रश्रवा के द्वारा प्रोक्त ग्रन्थ होने का भी ज्ञान होता है। इस प्रकार इन अठारह पुराणों में कुछ लोमहर्षण के द्वारा प्रोक्त है॥१॥ और कुछ उग्रश्रवा के द्वारा प्रोक्त है॥२॥ कुछ पुराणों का दोनों के द्वारा प्रोक्त होने के कारण उनके दो निबन्ध ग्रन्थ रूप मिलते हैं। कुछ पुराणों का दोनों के द्वारा ही कथन न होने के कारण उनका अन्यों के द्वारा प्रोक्तत्व स्पष्ट ही है॥३॥ जहाँ एक पुराण के दो निबन्ध है वहाँ दोनों में से किसी एक की गणना से अठारह की संख्या की पूर्ति की जाती है जैसे लोमहर्षण के पद्मपुराण से अथवा उग्रश्रवा के पद्म से, लोमहर्षण के देवीभागवत १. मूलग्रन्थे तु “सुप्रसिद्धपदार्था ये स्वतन्त्रालोकविक्षुषुकर्तव्यशब्देषु न तदुक्तिषु” इति पाठः पठितो यो हि त्रुटिपूर्णोऽतः संशोधितस्शुद्धपाठः मूले स्थापितः। प्रसिद्धपाठस्तु "अभिव्यक्तपदार्थाये इत्येवरूंपे" वर्तते। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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