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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् सभी ऋषि नीचे आसन पर बैठे हैं तथा लोमहर्षण उनकी अपेक्षा उच्च आसन पर हैं यह देखकर वे क्रोध में भर कर सूत को मार डालते हैं। शोकाकुल ऋषि बलराम को बताते हैं कि यह ठीक नहीं हुआ है तब बलराम उग्रश्रवा की विद्वत्ता बता कर उसे उस आसन पर बैठाकर शेष कथा सुनाने को कहते हैं । यहाँ ओझाजी के लेख का यह अंश द्रष्टव्य है तत्रावशिष्टमाग्नेयं श्रावयन्तमेवैनं शूद्रत्वाद् उच्चासनायोग्यमप्युच्चासनासीनं दृष्ट्वा क्रोधाकुलितो जघान । अब वे पद्मपुराण उत्तर खण्ड के भागवत महात्म्य के पद्य उद्धृत करते हैं । यहाँ इतना ही बताया गया है तत्र सूतं समासीनं दृष्ट्वा त्वध्यासनोपरि ॥४ ॥ यहाँ शूद्र जैसा शब्द नहीं है। यही प्रसङ्ग भागवतपुराण के दशम स्कन्धके ७८ वें अध्याय में भी है वहाँ कहा गया है अप्रत्युत्थयिनं सूतमकृतप्रह्वणाञ्जलिम् । अध्यासीनं च तान् विप्राँश्चुकोपोवीक्ष्य माधवः ॥ २३ कस्मादसाविमान् विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमज: । धर्मपालाँस्तथैवास्यान् वध मर्हति दुर्मतिः ॥२४ यहाँ बताया गया है सूत न तो बलराम के आने पर खड़ा हुआ और न उसने उन्हें प्रणाम किया, वह विप्रो की अपेक्षा उच्च आसन पर था, बलराम ने सोचा कि यह तो हम से भी जो धर्मरक्षक हैं, उच्च आसन पर हो गया अतः वध दण्ड का पात्र है। ४७ बलराम वेद, उपवेद, वेदान आदि सभी शास्त्रों के विद्वान् थे। युग-युगों से प्रचलित परम्परा के ज्ञाता थे। सूत के पुराणाधिकार से पूर्ण परिचित थे तथापि वे ऐसा दुष्कृत्य कर बैठते हैं निश्चित ही इसमें कारण वैयक्तिक अभिमान, मिथ्या अहङ्कार तथा क्रोध पर नियन्त्रण का अभाव है। वे शास्त्र संस्कारित तो थे ही, ऋषियों के कथन से वे अपनी भूल समझ गये तथा इसका प्रायश्चित्त भी उनके द्वारा कर लिया गया था ओझाजी ने १० पुराणों का कथन लोमहर्षण द्वारा तथा शेष ७/1⁄2 का प्रवचन उग्रश्रवा द्वारा किया जाना बताने के लिए इस प्रसंग को यहाँ उठाया था। इसका दूसरा लाभ यह हो गया कि पुराणवाचक सूतको लोग इस दृष्टि से भी देखते हैं, इसका ज्ञान हो जाता है जो बात इस प्रकार के चिन्तन के विषय में हमारा ध्यान आकृष्ट करती है तथा समाधान के लिए प्रेरित करती है। पुराण के साङ्गोपाङ्ग विवेचन में प्रवृत्त ओझाजी यहाँ वेदशाखा विस्तार प्रसङ्ग को भी विचारार्थ रखते हैं। इसके द्वारा भी वे यह बताना चाहते हैं कि ऋगादि चार वेदों में तथा पुराण वेद में तनिक भी अन्तर नहीं है। समाज में वेद का उत्तरोत्तर प्रसार करने के उद्देश्य से शिष्यों को तैयार करने के लिए वे ५ शिष्य चुनते हैं ऋक्, यजुः, साम, अथर्व और पुराण नाम के ५ वेदों के लिये पाँचों शिष्य पाँचों वेद पढ़ते हैं समान रूप से किन्तु प्रसार वे उसी वेद का करते हैं जिसके लिए गुरु द्वारा अधिकृत किये गये हैं। सभी पुराणों में जहाँ-जहाँ भी वेद शाखा भेद बताये गये हैं वहाँ इसी प्रकार का वर्णन है। यहाँ विष्णु पुराण के उद्धरण से यह बात बताने का यत्न है— ' ब्रह्मणा चोदितो व्यासो वेदान् व्यस्तुं प्रचक्रमे । अथशिष्यान् प्रजग्राह चतुरो वेदपारगान् ।।३.४.७ ऋग्वेदपाठकं पैलं जग्राह स महामुनिः । वैशम्पायननामानं यजुर्वेदस्य चाग्रहीत् ॥८ जैमिनिं सामवेदस्य तथैवाथर्ववेदवित् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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