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________________ ४२ पुराणनिर्माणाधिकरणम् लोकव्यवहारोचित ग्रन्थ देने के विचार से निदर्शन रूप में ब्रह्मपुराण सबसे पूर्व जनं साधारण के समक्ष रखा। तीन शिष्यों के साथ उग्रश्रवा भी रोमहर्षण को प्राप्त था। इन पाँचों ने अपना पुराण रचना का कार्य किया। यह पराशर का निष्कर्ष था जिसे भागवत सही रूप में नहीं दे पाया। इसी भाव से ओझाजी ने प्रकारान्तर से पुराणावतार बताने के क्रम में इसे रखा भी. इतिहास को मनमाने ढंग से लेकर चलने की वत्ति को प्रसार-प्रचार के प्रतिकल समझकर बिना कुछ कहे प्रतिबन्ध जैसा संकेत भी कर दिया जो अनिवार्य था, अन्यथा भागवत मत के आधार पर नाना मतवाद खड़े हो जाते। ___ भाषा की अपूर्व निधि, अभिव्यक्ति का कौशल, वाङ्मय के सभी पक्षों के सहस्रशः ग्रन्थों का बोध, भगवान् में अत्यन्त गहरी अटूट श्रद्धा की भाव राशि पैदा करने का सङ्कल्प और सामर्थ्य इस पुराण में है, 'विद्यावतां भागवते परीक्षा अक्षरशः ठीक है, अनेक मन्त्रों के ब्राह्मण और उपनिषदों के सहृदयहृदयरोचक भावानुवाद शब्दानुवाद यहाँ हैं। सारी विशेषताओं का गिनाना यहाँ न सम्भव है न उसका यह स्थान ही है, पुराण की पञ्चलक्षणात्म रमणीय कृति है। काव्य महाभारत भी है रामायण भी है किन्तु काव्य के नाम पर इतिहास की विकृति उनमें राई रत्ती भी नहीं है। यहाँ सम्भवतः काव्यत्व का विघात अनुकृति, शब्द राशि भावों की पुनरावृत्ति में ही मान लिया गया है। अतः ऐतिह्य . प्रसङ्गों को भी बदल दिया, ये दोष पुराण विद्या में घातक हैं इतिहास के दूषक हैं। आज प्राप्त सभी पुराण महाभारत के प्रशंसक हैं, इसे इतिहास का निर्दुष्ट निर्मल स्रोत मानते हैं, उन्हें अकारण बदल देना महान् दोष है। पुराण अवतरण वस्तुतः असह्य है जो इस ऐतिह्य विकृति के साथ है। यह आदर्श न बने यही इस प्रसङ्ग का आशय है। आठ नौ वर्ष पूर्व 'वेद विज्ञान विद् गुरुशिष्यत्रयी पढ़ रहा था। ओझाजी के मुद्रित ग्रन्थों के विवरणात्म सूची पत्र में पुराणनिर्माणाधिकरण के विषय में सूचना थी कि डॉ. दयानन्द भार्गव के सम्पादकत्व में डॉ. निधि गुप्ता द्वारा इस ग्रन्थ का अनुवाद कार्य चल रहा है। यह सूचना सन् १९९४ की थी। डॉ. निधि ब्यावर, दयानन्द बालिका महाविद्यालय में संस्कृत प्रवक्तृत्वेन कार्यरत थी। मैंने कार्य की प्रगति के विषय में पूछा तो ज्ञात हुआ अभी नहीं हो रहा था। मैंने उत्साहित किया अपनी पुस्तक भी दी किन्तु उस समय वह कुछ नहीं कर पायी। इसी समय मैं जयपुर आ गया तथा सरकार द्वारा उस महाविद्यालय के सेवागृहीत कर लिये जाने से वह भी ब्यावर के बाहर चली गयी। मैं चाह रहा था विश्वविद्यालय में कोई एतदर्थ आगे आवे। अकस्मात् डॉ. प्रभावती चौधरी निदेशक, पण्डित मधुसूदन ओझा शोधप्रकोष्ठ, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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