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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् यहाँ कश्यप आदि का विशेषण चत्वारः है, इसका अर्थ यह हुआ कि चत्वारः पाठ श्रीधर स्वामी का अभिमत है। श्रीधर स्वामी की भावार्थदीपिका पर श्री बंशीधर की भावार्थ दीपिकाप्रकाश टीका है। भागवत के इसी अध्याय में २४वें पद्य में १८ महापुराणों के नाम गिना कर संख्या त्रिषट् शब्द से बतायी गयी, त्रिषट् त्रिगुणित षट् अर्थात् १८। इस संख्या को लेकर इसे षष्ठ पद्य के ‘एकैकामहमेतेषां' के साथ अन्वित कर यह बताना चाहा है कि तीन-तीन पुराण मिलकर एक-एक संहिता बनी है। इस प्रकार एक-एक संहिता अलग-अलग तीन पुराणों का रूप है। केवल अर्थ की खींचातानी का यह बुद्धि विलास मात्र है। यहाँ इन्होंने 'संहिता' का अर्थ स्पष्ट करने में यह चमत्कार खूब दिखाया है इस स्थिति में ओझाजी यदि श्रीधर स्वामी के लिए 'व्याख्येयश्लोकतात्पर्यापरि ज्ञानमूलकम्' कहते हैं तो उचित ही है, भागवत के दोषों का गूहन करना वाङ्मय के प्रति अवज्ञा ही है। निश्चित ही यहाँ भागवतकार विष्णु, वायु और ब्रह्माण्ड पुराणों से सामग्री ली है साथ ही स्वेच्छाचारिता भी की है भागवतकार तथा कष्णद्वैपायनव्यास पुराण और इतिहास को दृष्टि में न रखते हुए अपने ही इष्ट विचारों का प्रतिपादन करने के क्रम में अपने पूर्ववर्ती वाङ्मय की घोर अवहेलना प्रायः भागवत में प्रारम्भ से ही है। यहाँ अवतार गणना में वामन, परशुराम, कृष्ण द्वैपायन, दाशरथि राम तथा बलराम कृष्ण का क्रम रखा गया है जो सम्पूर्ण वाङ्मय के विरुद्ध है, जहाँ भगवान् दाशरथि राम से व्यास को पहले गिना गया है ततः सप्तदशे जातः सत्यवत्यां पराशरात्। चक्रे वेदतरोः शाखा दृष्ट्वा पुँसोऽल्पमेधसः॥ १.३.२१ नरदेवत्वमापन्नः सुरकार्यचिकीर्षया। समुद्र निग्रहादीनि चक्रे वीर्याण्यतः परम् ॥२२॥ तदनन्तर सत्रहवें अवतार में भगवान् हरि पराशर से सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न हुए (जिनका नाम कृष्ण द्वैपायन व्यास है) इन्होंने मनुष्यों को अल्पमेधावी देखकर वेदवृक्ष की शाखाओं का विस्तार किया॥२१॥ देवहितकारी कार्य (रावण वध आदि) करने के लिए नरदेव-राजा का रूप लिए जिन भगवान् हरि ने व्यास के अनन्तर (राम नाम से) अवतीर्ण होकर सागर पर सेतुबन्धन आदि वीर कर्म किये॥२२॥ चाहकर भी शास्त्र सङ्गति के मिथ्या नाम से इस पद्यद्वयी का अन्य अर्थ सम्भव नहीं है, व्यास को सत्रहवाँ क्रम दिया गया है। इसके अनन्तर ‘अतः परम्' (=इसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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