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पुराणनिर्माणाधिकरणम्
यह लोट् प्रयोग आदेश भी है आशी: भी। जब सम्पादन में व्याप्त हूँ तो मेरे लिए आदेश की अनुपालना अनिवार्य हो जाती है कार्याधिकार से भी।
वस्तुतः भागवत का यह विषय मूल में ही असाधु है। सामने रहें अतः भागवत के मूल पद्य उद्धृत कर रहा हूँ
त्रय्यारुणि: कश्यपश्च सावर्णिरकृतव्रणः। शिंशपायन हारीतौ षड्वै पौराणिका इमे ॥ १२.७.४ अधीयन्त व्यासशिष्यात् संहितां मपितुर्मुखात्। एकैकामहमेतेषां शिष्यः सर्वाः समध्यगाम्॥ ५ काश्यपोऽहं च सावर्णिः रामशिष्योऽकृतव्रणः। अधीमहि व्यासशिष्याच्चत्वारो मूलसंहिता॥ ६
गीता प्रेस गोरखपुर के मूल संस्करण में ये ५-७ क्रम के पद्य हैं। प्रथम पद्य के तृतीय चरण का पाठ 'वैशम्पायनहारीतौ' है तथा टिप्पणी में वैशम्पायन के स्थान पर 'शिंशपायन' पाठान्तर बताया गया है। तृतीय पद्य के चतुर्थ चरण का पाठ 'चतस्रोमूलसंहिताः' है यहाँ संख्या मूलसंहिता के विशेषण के रूप में है, ओझाजी के पाठ में चत्वारः पुंल्लिङ्ग का है जो अध्येताओं को बताता है—'काश्यपादयः वयं चत्वारः'। यहीं व्यासशिष्यात् के स्थान पर व्यासपुत्रात् पाठ है।
गीताप्रेस गोरखपुर के सानुवाद प्रकाशन में निम्नलिखित अर्थ किया गया है
शौनक जी! पुराणों के छ: आचार्य प्रसिद्ध हैं-त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हारीत।५। इन लोगों ने मेरे पिताजी से एक-एक पुराणसंहिता पढ़ी थी और मेरे पिताजी ने स्वयं भगवान् व्यास से उन संहिताओं का अध्ययन किया था।६। उन छः संहिताओं के अतिरिक्त और भी मूल चार संहिताएँ थीं। उन्हें भी कश्यप, सावर्णि, परशुरामजी के शिष्य अकृतव्रण और उनके साथ मैंने व्यासजी के शिष्य श्री रोमहर्षण जी से जो मेरे पिता थे, अध्ययन किया था।७। श्री श्रीधर स्वामी की भागवत पर अर्थदीपिका टीका है तदनुसार अधीयन्त व्यास' श्लोक का भाव है कि पहले भगवान् व्यास ने छः संहिता बनाकर मेरे पिता रोमहर्षण को दी। रोमहर्षण के मुख से इन त्रय्यारुणि आदि ने एक-एक संहिता का अध्ययन किया। इन त्रय्यारुणि आदि छहों के शिष्य होने से मैंने सभी संहिताएँ पढ़ी।६। कश्यप, मैं रोमहर्षण, सावर्णि तथा परशुराम के शिष्य अकृतव्रण, इस तरह हम चारों ने मूलसंहिताएँ पढ़ी। श्रीधर स्वामी कहते हैं कि यहाँ 'मूलसंहिताः' पद है, इसका अभिप्राय यह हुआ कि संहिता की संख्या बहुत हैं एक या दो नहीं।
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