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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् भी शाखाभेद हैं तथा शाखाओं में उदात्तादि स्वरों निषाद आदि स्वरों की तथा स्वरव्यञ्जन वर्णों की सम्पदा युक्त गीतियाँ उन्हें मेरे द्वारा निर्मित समझो। १०० - १ । पर ध्यान देने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि गुरु शिष्य परम्परा से बनी ये संहिताओं की यत्किञ्चिद्भेदयुक्त ग्रन्थावलि नहीं है। ऋग्वेद के घटक जो २१ अवयव हैं उन अवयवों की सम्पन्नता से ऋग्वेद की कृत्स्नता के रूप का बोध होता है । ऐसा ऋग्वेद भगवान् का रूप है अथवा भगवान् ऐसे ऋग्वेद हैं। आध्वर्यव कर्म के १०१ प्रकार हैं, उन प्रकारों वाला यजुर्वेद भगवान् का रूप है । अथर्ववेद के शान्त्यादि पाँच कल्प हैं, एतत्कल्पसम्पन्न अथर्व भगवद्रूप है । सहस्रों प्रकार वाली गीतियों की योनि साम का गान करना भगवान् को गाना है । २४ इन सब भावों के याथार्थ्य पर दृढ़ विश्वास दिलाने वाला वाक्य अन्तिम पद्य है हाँ ये भगवान् के किये हुए ही बता दिये गये हैं। यहाँ प्रथम पद्य में 'साहस्र' का अभिप्राय हजार की संख्या बताने की नहीं है, बतायी गयी संख्या २१ की अविकलता बताना इसका भाव है । गीताप्रेस गोरखपुर के अनुवाद युक्त संस्करण में शत पाठ का ९८ वें पद्य के प्रथम चरण में षट् के स्थान पर, उसे हटाकर ठीक पद षट् किया गया है । सहस्र की भाँति शत IT प्रयोग भी कृत्स्नता और बहु अर्थ में होता है अतः १०१ की संख्या इसके बिना पूर्ण हो सकती तो इसे रखा जा सकता था । षट् (छ) का बोधक शब्द अनिवार्य था अतः उसे हटाना पड़ा तथा छ की पूर्ति के लिए षट् पद लेना पड़ा। · भगवान् के असंख्य नामों में वेद भी है, जो 'वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कवि : ' (२७) विष्णु सहस्र नाम स्तोत्र के इस पद्यार्ध से स्पष्ट है, अतः ये भगवान् के नाम के रूप में है इसमें सन्देह नहीं है । प्रसंग भी इस अध्याय का यही है। यजुर्वेद ( माध्य. सं.) के १८ वें अध्याय की ६७वीं कण्डिका में स्पष्ट कथन भी प्राप्त है— ऋचो नामास्मि, यजूंषि नाम अस्मि सामानि नामास्मि । अतः ऐसा लगता है कि वेद में ऋगादि के रूप हैं, वाङ्मय वेद के भाग नहीं है । भगवान् वेदव्यास के शिष्य पैल आदि के शिष्य प्रशिष्यों द्वारा किये गये ये भेद कृष्ण के कथन से व्यक्त हैं तो क्या यह सम्भव है कि कृष्ण और अर्जुन की उपस्थिति में सुनिश्चित रूप से इन शाखाओं का स्वरूप नियत हो चुका था तथा इन्हीं को लेकर कृष्ण का कथन है तो कृष्ण के 'सर्वान् तान् मत्कृतान् विद्धि' कहने का क्या भाव है ? सत्यवतीनन्दन व्यास से प्रारम्भ इस भेद की पूर्णता जो कई पीढ़ियों में हुई है क्या ३०० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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