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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् - २३ है अध्येता अध्यापकों की संख्या बढ़ाना। इसका परिणाम है शाखाओं का विस्तार। चतुर्दिक समान विस्तार वृत्त है। भूमि पर इस वेदवृत्त को बड़े करने के पदों का न्यास व्यास है, जितना बड़ा व्यास उतना बड़ा वृत्त। शाखाओं की स्थिति का सर्वविध वर्णन शाखा का इतिहास है जो पुराण के दिये गये इस परिचय से स्पष्ट है। ऐसा ही वृत्त शाखाओं का है। इस शाखोत्पत्ति क्रम के इतिहास में बहुत अधिक अस्तव्यस्तता है। विष्णु, वायु, ब्रह्माण्ड, भागवत एवं मत्स्य पुराणों के तथा पं. भगवद्दत्त जी के वैदिक वाङ्मय के इतिहास के आधार पर इस स्थल का पाठसंशोधन का प्रयत्न रहा है तथा तदनुसार पाठ ठीक किया भी गया है किन्तु अब भी यहाँ बहुत अधिक अनुसन्धान की आवश्यकता है। समयाभाववश मनचाहा कार्य नहीं हो सका, इसका खेद है। शाखा क्या है? प्रसङ्गप्राप्त शाखा तथा शाखावृद्धि पर उठे कुछ विचार यहाँ प्रस्तुत हैं, सुधीजन इस पर विचार करें। भारत युद्धानन्तर भीष्म पितामह के प्राण त्यागने तक तथा उसके भी कुछ बाद - तक कृष्ण हस्तिनापुर में ठहरे थे। एक बार अर्जुन कृष्ण के उन सभी नामों का निर्वचन बताने का निवेदन करता है जो प्रमुख प्रमुख विविध शास्त्रों में आये हैं। इसी क्रम में वे अर्जुन को कहते हैं. . एकविंशतिसाहस्रमृग्वेदं मां प्रचक्षते। सहस्रशाखं यत्साम ये वै वेदविदोजनाः ॥ शां.पर्व ३४२.९७ ॥ गायन्त्यारण्यके विप्रा मद्भक्तास्ते हि दुर्लभाः। षट् पञ्चाशतमष्टौ च सप्तत्रिंशतमित्युत॥ ९८॥ यस्मिशाखा यजुर्वेदे सोऽहमाध्वर्यवे स्मृतः। पञ्चकल्पमथर्वाणं कृत्याभिः परिबृंहितम् ॥ ९९ ॥ कल्पयन्ति हि मां विप्रा आथर्वणविदस्तथा। शाखाभेदाश्च ये केचिद् याश्च शाखासु गीतयः॥ १०० ॥ स्वरवर्णसमुच्चाराः सर्वांस्तान् विद्धि मत्कृतान्। १०१॥ इक्कीस शाखामय ऋग्वेद मुझे ही कहते हैं, वेदवित् एक सहस्र शाखामय जिस सामवेद को वेदज्ञविप्र आरण्यक में गाते हैं वे मेरे भक्त दुर्लभ हैं। जिस यजुर्वेद में अध्वर्यु कर्म सम्बन्धी १०१ शाखा हैं उस रूप में मैं ही हूँ। नाना प्रकार की कृत्याविधियों से सम्पन्न पञ्चकल्पात्मक अथर्व को अथर्वविद् ब्रह्मा मेरा ही रूप मानते हैं। ९७-९९ । जो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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