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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् वायु पुराण के पद्यों के उद्धरण के अन्त में 'तदित्थं वेदव्यासकृतानां होत्रुद्गात्र... प्रासिध्यन्त तथा चोक्तं कौर्मेऽपि' द्वारा स्पष्ट करते हैं जैसे एक-एक वेद शिष्य प्रशिष्यों द्वारा अनेकानेक शाखाओं में बढ़ता गया वैसे ही लोमहर्षण को दी गयी एक पुराण संहिता उससे तथा उसके शिष्यों से चार शाखाओं में फैली तथा उनसे ही अष्टादश (१८) विभिन्न विभिन्न पुराणग्रन्थ बने । लिङ्गपुराण के 'पराशरसुतो व्यासः..... भेदैरष्टादशैर्व्यासः' पद्यों से ओझाजी अपनी बात का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । पुराणराशि सम्पादक उग्रश्रवाः आज प्राप्त पुराण ग्रन्थ राशि को हम तक पहुँचाने का श्रेयः सूत लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा: को जाता है । २१ अपने पिता की तथा उनके तीनों शिष्य अकृतव्रण, सावर्णि तथा शांशपायन की शिष्यता का सौभाग्य उग्रश्रवा को मिला। तक्षशिला में हुए जनमेजय के सर्पसत्र में आये सशिष्य भगवान् व्यास के साक्षाद् दर्शन का ही नहीं वैशम्पायन से सम्पूर्ण महाभारत सुनने का भी स्वर्णावसर इसे मिला जहाँ जनमेजय के प्रश्न और वैशम्पायन के उत्तर साक्षात् सुने भी। वहाँ से लौटते समय ही मार्ग में नैमिषारण्य जाकर कुलपति शौनक यज्ञ में सम्पूर्ण महाभारत सुनाने का सुखद संयोग भी अपने पुरुषार्थ से प्राप्त किया, यहाँ गये महाभारत ग्रन्थ का इनके द्वारा सम्पादित रूप आज हमें प्राप्त है। इसी भाँति चारों पुराण संहिताओं का सम्पादन भी इन्हीं का है । व्यास से प्राप्त पुराण ज्ञान लोमहर्षण ज्यों-व -का-त्यों इन्हें दिया अतः ये परम्परया व्यास शिष्य भी हैं। इन संहिताओं के आधार पर ही इतस्ततः अन्य मुनि तथा लोमहर्षण और शांशपायन आदि भी विभिन्न स्थानों में विशाल जनसमुदायों में कथा करते थे । उग्रश्रवा यत्नपूर्वक इसका संग्रह करते रहते थे । पुराण कथा सूत की वृत्ति (जीविका ) भी हैं। इसके लिए भी इनका सदा सर्व प्रयास होता रहता था। फलस्वरूप भीष्म- पुलस्त्य, पराशर - मैत्रेय आदि के संवाद सुनने को मिलते रहते थे । उग्रश्रवा का ज्ञान कोश बढ़ता रहता था । लोमहर्षण की उपस्थिति में भी उनके आदेश से उग्रश्रवाः ऋषि आश्रमों में कथा कहने लिए जाते थे । वह भी बराबर संहिताबद्ध होता रहता था । ऐसी ही संहिताबद्ध सामग्री अपने पिता की भी मिली । उग्रश्रवा ने उसे भी सुरक्षित रखा। इस प्रकार एक ही पुराण थोड़ाथोड़ा भिन्न बन गया। नये-नये निकले उग्रश्रवा की परीक्षा भी ऋषि लोग लेते थे जिसमें कभी किसी प्रसङ्ग को वहाँ से आगे कहने के लिये कहते थे जहाँ तक वे लोमहर्षण से सुन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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