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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् विष्णु पुराण में 'चतुष्टयेन भेदेन' पाठ है। इससे अर्थ में कोई अन्तर नहीं आता है कथन के प्रकार में अवश्य कुछ भेद हो जाता है। स्वयम् ओझाजी जब विष्णु पुराण के नाम से ही उद्धृत कर रहे हैं तो कालान्तर में पाठभेद जैसा प्रश्न क्यों उठे, अत: मूल में इसे शुद्ध कर दिया गया है। विष्णुचित्तीय तथा श्रीधर टीका में किसी पाठ भेद की सूचना भी नहीं है। गीता प्रेस गोरखपुर के संस्करण में भी यही पाठ है। श्रीधर के नीचे दिये अर्थवाक्य से ओझाजी के पाठ की सम्भावना है। ___ मुने! संहितानां चतुष्टयेन भेदेन इदम् सर्वपुराणानाम् आद्यं ब्राह्मं पुराणम् उच्यते। पुराणज्ञाः अष्टादश पुराणानि प्रचक्षते। पराशर स्पष्ट कह रहे हैं कि थोड़ी-थोड़ी भिन्नता रखने वाली इन चार संहिताओं से पुराण विद्या के विभिन्न ग्रन्थों का निर्माण हुआ है, इनमें सभी पुराणों का आदि ब्रह्मपुराण माना गया है, इसे लेकर कुल १८ पुराण हैं ऐसा पुराणज्ञ कहते हैं। .. इस कथन से एक तथ्य स्पष्ट होता है कि नाम विशेष के बिना प्रयुक्त ‘पुराण शब्द पुराण सामान्य का बोधक है किसी पुराण विशेष का नहीं। जैसे यहीं विष्णु पुराण के इसी पद्य में आया हुआ इदम् (यह) शब्द विष्णु पुराण का संकेत न कर 'पुराण' का बोधक है। तभी उत्तरार्ध की सङ्गति है। ये चारों संहिताएँ पुराण मात्र की मूल हैं इस अर्थ के पश्चात् इदम् का अर्थ विष्णु पुराण भी लिया जाता है। स्वयम् पराशर की गणना में यह तृतीय है, प्रथम दो के बिना तृतीय कैसे कहाँ से? विष्णुचित्तीय में अतिसंक्षेप में ‘पुराणसंहितानामेतेन चतुष्टयेन मूलभूतेन तदर्थं स्मृत्वा पुरुषभेद-कालभेदानुगुण्येन मयेदं वैष्णवं पुराणं कृत मित्यर्थः । एतत्संहिता चतुष्टयमूलभूतत्वं सर्वपुराणानां साधारणम्।' ॥१९॥ कथन द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है। अतः जहाँ कहीं भी पुराण के उत्तरोत्तर अध्यापन का उल्लेख किया जाता है वहाँ प्रमुख रूप में 'पुराण' विषय है, गौण रूप में उस पुराण विशेष का ग्रहण है। श्री श्रीधर स्वामी सम्भवतः इस तथ्य को नहीं पकड़ पाये हैं उनका कथन यहाँ इस रूप में है—एतासां काश्यपादिकृतानां संहितानां चतुष्टयेनापि मूलभूतेन तत्सारोद्धारात्मकमिदं विष्णुपुराणं मुने मैत्रेय मया कृतमितिशेषः। ॥१९॥ यदि समझा हुआ होता यह विषय तो उनका अगला वाक्यविन्यास—'इदानीं व्यासकृतान्येवाष्टादशपुराणान्याह-आद्यमित्यादिसार्धेश्चतुर्भिः' जैसा नहीं होता। ओझाजी परम्परा सम्बन्ध से इनका व्यास के साथ सम्बन्ध मानते हैं जो उचित भी है साक्षात्कर्तृत्व तो तनिक भी नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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