SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ पुराणनिर्माणाधिकरणम् संहिताः” इति बहुवचनदर्शनात् व्यासकृता लोमहर्षणकृता वा संहिता अनेका नत्वेकैका इति तावत्प्रतीयते। अन्यथा “मूलसंहिताम्" इति मूलसंहिते इति वा वदेत् । परन्तु संख्यानियमः कर्तुमशक्य एव। विष्णुपुराणादिरीत्या तु एकैव संहिता व्यासकृता एकैव च लोम-हर्षणकृता इति स्पष्टं प्रतीयते। अत्रत्यं तत्वं पुराणान्तरवचनान्वेषणया निश्चिन्वन्तु विपश्चितः। __ व्यासकृता पुराणसंहिता चतुर्लक्षणोपेता-आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैरित्युक्तेः । लोमहर्षणकृता मूलसंहिता तु पञ्चलक्षणोपेता “सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशोमन्वन्तराणि च। वंश्यानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्"॥ इत्युक्तेः। त्रय्यारुण्यादिकृताः षट्संहितास्तु पञ्चलक्षणोपेता व्यभिचरितलक्षणाश्च। परास्त्विदानीन्तनाः पुराणसंहिता दशलक्षणोपेताः पञ्चलक्षणोपेता अनियतलक्षणावा। का कथन अशुद्ध है। यह ज्ञातव्य है इस उपर्युक्त, भागवत में कथित छठे, श्लोक में चार . मूल संहिताएँ इस प्रकार बहुवचन का प्रयोग होने से यह प्रतीत होता है कि व्यास द्वारा रचित अथवा लोमहर्षण द्वारा रचित संहिताएँ अनेक हैं न कि एक-एक। अन्यथा एक वचन का पद 'मूल संहिता' अथवा द्वि वचन का पद ‘मूल संहिते' जैसा होना चाहिये था. यह कहना चाहिए। परन्तु संख्या का नियम क ना असम्भव ही है। विष्णु पुराण आदि की रीति से तो एक ही संहिता व्यास द्वारा रचित है और एक ही संहिता लोमहर्षण के द्वारा रचित है यह स्पष्ट प्रतीत होता है। यहाँ के इस विषय के तत्त्व का विद्वान् लोग अन्य पुराणों के वचनों के अन्वेषण के द्वारा निश्चित करें। व्यास द्वारा रचित पुराण संहिता ‘आख्यान और उपाख्यान जैसे चार लक्षणों से युक्त है जो ‘आख्यानैश्चाप्युपांख्यानै.' जैसी उक्ति से ज्ञात है। लोमहर्षण द्वारा रचित मूल संहिता पाँच लक्षणों से युक्त हैं जो सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंश्यानुचरित इस उक्ति से। यह ‘सर्गश्च प्रति.' जैसी लक्षणोक्ति से स्पष्ट है। त्रय्यारुणि आदि रचित छः संहिताएँ तो पाँच लक्षणों से युक्त है और व्यभिचार लक्षण वाली भी है। अन्य आधुनिक पुराण संहिताएँ दश लक्षणों से युक्त, पाँच लक्षणों से युक्त हैं तथा अनियत लक्षणों वाली हैं। १. यह विचार सम्पादकीय में किया गया है। । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy