SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् “प्रथमं व्यासः षट् संहिताः कृत्वा ” इति श्रीधरोक्तं वेदव्यासस्य षट्संहिताकर्तृत्वं तु स्वव्याख्येयश्लोकतात्पर्य्यार्थापरिज्ञानमूलकम् । अष्टादशस्वपि पुराणेषु कुत्रापि षट् संख्याया अनुपलब्धेस्तस्याप्रमाणत्वात् । षड्भ्यः शिष्येभ्यः एकैकामिति पदान्वयभ्रममूलकत्वाच्च । वस्तुतस्तु एतेषां शिष्योऽहं एकैकां कृत्वा सर्वाः समधीतवानित्यर्थः यद्वा एकैकां संहितामुद्दिश्य तेषां षण्णां शिष्योऽहं सर्वाः समधीतवानित्यर्थः सङ्गमनीयः । उग्रश्रवास्तु-अकृतव्रण- सावर्णि - काश्यपैः सह मूलसंहितां लौमहर्षणिकां लोमहर्षणात् स्वपितुरेवाधीतवान्—ततोऽकृतव्रणादिभिः कृताः संहिताः तिस्रः षड्वा अकृतव्रणादिभ्यः एव प्रत्येकमधीतवान् । यदितु श्रीधरोक्तरीत्याव्यासप्रणीताः षण्मूलसंहिताः स्युः ताश्च प्रत्येकमेकैकां त्रय्यारुण्यादयः षडपि मुनयोऽधीतवन्तः स्युः । तेभ्यः एव च षड्भ्यो मुनिभ्यः एकैकामुग्रश्र - वास्ता मूलसंहिताः पठेत् । तर्हि उपरिनिर्द्दिष्ट-भागवतस्थ - षष्ठश्लोको विरुद्धयेत् । तस्मादत्र श्रीधरोक्तमशुद्धम्। इदं तु बोध्यम्-एतस्मिन्नुपरिनिर्द्दिष्ट-भागवतोक्त षष्ठश्लोके " चतस्रोमूल १०७ 66 'व्यास ने पहले छः संहिताओं का निर्माण कर" ऐसा श्रीधर का कथन वेद व्यास के छः संहिताओं के कर्तृत्व को बताने वाला स्वयं द्वारा व्याख्येय श्लोकों के तात्पय्यार्थ के अज्ञान के कारण है। क्योंकि अठारह ही पुराणों में कहीं भी छः संख्या की संहिताओं के निर्माण की उपलब्धि न होने से वह प्रमाण नहीं है साथ ही छः शिष्यों को एक-एक कर पढ़ाया ऐसा पदान्वय भी भ्रममूलक है। वास्तव में तो इनके शिष्य मैंने एक-एक करके सब संहिताओं का अध्ययन किया यह अर्थ है अथवा एक-एक संहिता को लक्ष्य बना कर इन छः के शिष्य मैंने समस्त पुराण संहिताओं का अध्ययन किया ह अर्थ सङ्गतीकरण करने योग्य है। उग्रश्रवा ने अकृतव्रण सावर्णि और काश्यप के साथ अपने पिता लोमहर्षण द्वारा रचित मूलसंहिता का उनसे ही अध्ययन किया, पश्चात् अकृतव्रण आदि के द्वारा रचि तीन अथवा छः संहिताओं को अकृतव्रण आदि से पढ़ा। यदि श्रीधर के कथन की रीति से व्यास द्वारा रचित छः मूल संहिताएँ ही हो और उनसे ही प्रत्येक का त्रय्यारुणि आदि छः मुनियों ने अध्ययन किया हो और पुनः उन छः मुनियों से ही एक- एक का उग्रश्रवा ने उन मूल संहिताओं का अध्ययन किया हो तो यह भागवत में विद्यमान उपर्युक्त छठे श्लोक के विरोध में जाता है। इसलिए यहाँ पर श्रीधर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy