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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति जैन- ग्रंथों में एक कथा है103- 'इन्द्रमह उत्सव का आयोजन था। राजा ने अपने नगर में घोषणा करवाई कि आज नगर के सभी पुरुष गांव के बाहर उद्यान में एकत्रित हो जाएं। कोई भी पुरुष नगर के भीतर न रहे। यदि कोई रहेगा, तो उसे मौत का दंड भोगना पड़ेगा। सभी पुरुष नगर के बाहर एकत्रित हो गए। राजपुरोहित का पुत्र एक वेश्या के घर में जा छुपा। राजा के कर्मचारियों को जब इस बात का पता लगा, तब वे वेश्या के घर से उसे पकड़कर ले गए। वह राजपुरुषों के साथ विवाद करने लगा। वे उसे राजा के समक्ष ले गए। राजाज्ञा की अवहेलना के जुर्म में राजा ने उसे मृत्युदंड दिया। पुरोहित राजा के समक्ष उपस्थित होकर बोला- "राजन्! मैं अपनी समस्त सम्पत्ति आपको दे देता हूँ। आप मेरे इकलौते पुत्र को मुक्त कर दें।" राजा ने उसकी बात स्वीकार नहीं की और पुरोहितपुत्र को सूली पर चढ़ा दिया। आशय यह है कि धन त्राणदाता न बन सका। __ आज सम्पत्ति या धन ही अशांति एवं तनाव का प्रमुख कारण है। धन अपने साथ व्यक्ति के लिए कई पापकर्मों को लेकर आता है और उसे इतना तनावग्रस्त बना देता है कि जहाँ से मुक्ति-पथ अर्थात् तनाव-मुक्ति के मार्ग पर आना संभव नहीं हो पाता। जैन आचार्य नेमिचन्द्र ने वित्त (धन) के परिणामों की चर्चा करते हुए एक गाथा उद्धृत की है - मोहाययणं मयकामवद्धणो जणियचित्तसंतावो आरंभकलह हेऊ, दुक्खाण परिग्गहो मूलं । अर्थ - परिग्रह मोह का आयतन है। यह अहंकार और वासना को बढ़ाने वाला एवं चित्त में संताप पैदा करने वाला है, साथ ही हिंसा और कलह का हेतु तथा दुःखों का मूल कारण है। यह ठीक है कि धन से भौतिक सुख मिलते हैं, किन्तु जैन आगमों में कहा गया है - खणमित्त सोक्खा बहुकाल दुक्खा - भौतिक सुख क्षणिक होता है तथा परिणाम में बहुत काल तक दुःख देने वाला होता है।105 103 बृहदवृत्ति, पत्र-211 उद्धृत - सुखबोधा, पत्र-83 महावीर का अर्थशास्त्र, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 17 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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