________________
जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
सुरक्षित रख सकता है। आधुनिक अर्थशास्त्र के प्रमुख पुरुष कहते हैं -'हमें अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है, सबको धनी बनना है। इस रास्ते में नैतिक और अनैतिक का हमारे लिए कोई मूल्य नहीं है। वे नैतिकता के विचार को भी धन कमाने के मार्ग में बाधक तत्त्व मानते हैं। आज विश्व में भ्रष्टाचार करने वाले व्यक्तियों का राज है। यही भ्रष्टाचार पूरे विश्व में अशांति फैला रहा है। यदि अर्थशास्त्रियों की विचारधारा यही है कि धन के उपार्जन में नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है, तो फिर विश्व का प्रत्येक प्राणी एवं स्वयं प्रकृति भी तनावग्रस्त ही रहेगी। सभी को सदैव भय बना रहेगा कि कब, कौन, कहाँ किसकी हिंसा कर दे और यह भय की वृत्ति तनावग्रस्तता की सूचक है। आज बढ़ते हुए आर्थिक अपराधों, अप्रामाणिकता और बेईमानी ने पूरे विश्व को अशांत व तनावग्रस्त बना दिया है। प्रत्येक व्यक्ति इन सबसे बचने के लिए धन को ही अपना संरक्षक मानने लगा है, परन्तु भगवान् महावीर के अनुसार, धन किसी का त्राणदाता नहीं बन सकता है। उनका मानना है कि वासना की अंधेरी गुफा में जिसका विवेकरूपी दीपक बुझ गया हो, उसको शान्ति कहाँ मिलेगी। वह मनुष्य तनावमुक्त होने के मार्ग को देखकर भी नहीं देख पाता है।01
आचार्य तुलसी ने उत्तराध्ययन की पूर्वोक्त गाथा का विवेचन करते हुए लिखा है- 'व्यक्ति धन कमाता है, पर वह (धन) उसके लिए त्राणदायक नहीं बनता। धन सुख-सुविधा दे सकता है, पर शरण नहीं। 102.
वस्तुतः, वे व्यक्ति, जो धन को त्राणदाता समझकर उसके अर्जन में पापकर्मों को करते हैं, उनकी मानसिकता पर वही धन एक दबाव बनाए रखता है। उदाहरण के लिए- यह धन कहीं चोरी न चला जाएइसकी चिंता, इतने धन को किस प्रकार भोग करूं, कहीं मेरे मरने पर यह धन कोई दूसरा तो न ले जाए, धन के लालच में कोई व्यक्ति मुझे कोई नुकसान न पहुँचाए या मृत्यु न दे दे, आदि का भय उसे तनावग्रस्त बनाए रखता है और धन के मोह में आसक्त व्यक्ति चाहकर भी तनावमुक्त नहीं हो पाता है। वह भयमुक्त या तनावमुक्त होने के लिए भी उसी धन का ही सहारा लेता है, जो उसे तनावग्रस्त बनाता है।
101 उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय 4/5
उत्तरज्झयणाणि, आचार्य तुलसी, अध्याय-4 की गाथा-5 का अर्थ विवेचन, पृ. 114
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org