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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 325 जैनदर्शन के अनुसार, ध्यान को मोक्ष-प्राप्ति अर्थात् समग्र दुःखों से मुक्ति का अन्तिम साधन माना गया है, अतः प्रस्तुत अध्याय में, ध्यान और योगसाधना के द्वारा तनावमुक्ति कैसे हो सकती है- इस पर प्रकाश डाला गया है। योगदर्शन में योग को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। जैनदर्शन में मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों को योग कहा गया है और तनावमुक्ति के लिए योग-निरोध आवश्यक है और यही ध्यान का लक्ष्य है। जैनदर्शन में ध्यान के चार प्रकार कहे गए हैं, उनमें से आर्तध्यान और रौद्रध्यान तनाव के हेतु हैं तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान से तनावमुक्ति सम्भव हैं, अतः सम्यक् ध्यान तो धर्मध्यान या शुक्लध्यान ही हैं। इस अध्याय में इन चारों ध्यानों के स्वरूप का विस्तार से विवेचन किया गया है। यहाँ मैंने स्थानांगसूत्र और ध्यानशतक के आधार पर इन ध्यानों के लक्षण, साधन आदि पर विचार भी किया है। तनाव का एक कारण ममत्वबुद्धि है। 'पर' पर 'स्व' (अपनेपन) का आरोपण ही व्यक्ति के दुःखों का मूल कारण है, इसीलिए आचारांगसूत्र में ममत्व के स्वरूप की जो चर्चा की गई है, उसी के आधार पर ममत्व के त्याग द्वारा एवं तृष्णा पर प्रहार करके ही व्यक्ति तनावमुक्त हो सकता है। तनाव के मूल कारणों में से एक कारण इच्छाएँ एवं आकांक्षाएँ हैं, अतः जैनधर्म में तनावमुक्ति के लिए इच्छानिर्मूलन पर जोर दिया गया है। इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं, जिनका कोई. अन्त नहीं है। वह व्यक्ति, जो इच्छाओं से ग्रस्त है, तनाव का भी अन्त नहीं कर सकता है, क्योंकि इच्छाएँ, आकांक्षाएँ व्यक्ति के मन को सदैव असंतुष्ट बनाए रखती हैं और असंतुष्ट मन सदैव तनावग्रस्त रहता है। पंचम अध्याय का यही विवेच्य-विषय रहा है। प्रस्तत शोधप्रबन्ध के छठवें अध्याय में जैनदर्शन के आधार पर तनावों के निराकरण के उपाए सुझाए गए हैं। - इस षष्ठ अध्याय में सम्यक-दर्शन, सम्यक-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र का विस्तार से विवेचन किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में भी सम्यक्-दर्शन, सम्यक-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र- इन तीनों को सम्मिलित रूप से मोक्षमार्ग कहा गया है। इसी आधार पर यह माना गया है कि उपर्युक्त तीनों- सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्-चारित्र की साधना ही तनावों के निराकरण का सम्यक् उपाय है। परिग्रह या संचयवृत्ति तनाव का मुख्य हेतु है, अतः तनाव से मुक्ति के लिए जैनदर्शन में अपरिग्रह के सिद्धान्त पर बल दिया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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