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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
अनेक शब्दों का उल्लेख मिलता है, जैसे- दुःख, चिन्ता,. आतुरता, आर्तता, चिन्ता, भय आदि।।
सामान्य व्यक्ति का यह मानना है कि भौतिक सुख-सविधाएँ व्यक्ति को तनावमुक्त बनाती हैं। जितने सुख-सुविधा के साधन अधिक होंगे, व्यक्ति को उतनी ही अधिक सुख-शांति प्राप्त होगी, किन्तु ऐसा होता, तो अमेरिका या अन्य विकसित देश पूर्णतः सुखी व तनावमुक्त होते, किन्तु स्थिति यह है कि आज वे सर्वाधिक तनावग्रस्त हैं। मस्तिष्क के शिथिलीकरण की दवाईयों या नींद की गोलियों की खपत इन्हीं देशों में सबसे अधिक होती है। जैनधर्म में तो भौतिक-सुख की लालसा को भी दुःख का हेतु ही कहा है। भौतिक-सुख की चाह अतृप्तता की निशानी है। एक इच्छा की पूर्ति होने पर क्षणिक तृप्ति मिलती हो, किन्तु नवीन इच्छा के जन्म से मन तो शीघ्र ही अतृप्त और अशान्त हो जाता है। अतृप्त मन ही तनावग्रस्त होता है, अतः तनावमुक्ति का एकमात्र साधन आध्यात्मिक विकास द्वारा चित्त की निर्विकल्प स्थिति ही है।
इस प्रथम अध्याय में यह भी बताया गया है कि आज तनावप्रबंधन के लिए आध्यात्मिक प्रबंधन की आवश्यकता है, क्योंकि जैनदर्शन में तनाव का मुख्य कारण राग-द्वेष एवं कषाय माने गये हैं। आचारांगसूत्र में कई स्थानों पर यह कहा गया है कि संसार के परिभ्रमण एवं दुःख (तनाव) का कारण राग-द्वेष एवं कषाय हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में कषाय को अग्नि की उपमा दी गई है, जो आत्मा के सदगुणों को जलाकर नष्ट कर देती है। व्यक्ति के संतोष, सरलता आदि सदगुण ही उसके जीवन में शांति स्थापित करते हैं और इनके अभाव में व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है। तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं में कषायों का जो स्वरूप दिया गया है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि तनाव (दुःख) का कारण कषाय या 'पर' के प्रति आसक्ति या ममत्ववृत्ति (राग) ही है। परवर्तीकालीन जैनग्रंथों, जैसे- प्रशमरति एवं विशेषावश्यकभाष्य आदि में भी विभिन्न नयों के आधार पर राग-द्वेष एवं कषायों का जो सह-सम्बन्ध बताया गया है, उसकी चर्चा भी मैंने इस प्रथम अध्याय में की है।
द्वितीय अध्याय में विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर तनाव के कारणों का विश्लेषण किया गया है। इनमें सर्वप्रथम आर्थिक स्थिति को भी तनाव का एक कारण बताया गया है। जैनदर्शन में आर्थिक विपन्नता के साथ-साथ धन-संचय या परिग्रह की वृत्ति को भी दुःख एवं चिंता
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