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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 317 वस्तुतः, तनाव के अनेक रूप हैं। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न तरह के तनाव उत्पन्न होते हैं और इन तनावों का प्रभाव हमारे शरीर एवं स्वास्थ्य पर भी पड़ता है, अतः इस प्रथम अध्याय में हमने तनाव के स्वरूप को समझाते हुए उसके विभिन्न प्रकारों को भी परिभाषित किया है। इस चर्चा से यह भी स्पष्ट हुआ है कि तनाव न केवल. एक दैहिक या मानसिक स्थिति है, अपितु वह एक मनोदैहिकअवस्था है। इसी सन्दर्भ में हमने यह भी बताया है कि मन और शरीर एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं। वे एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, अतः जैनदर्शन उनमें न तो स्पीनोजा के समानान्तरतावाद के सिद्धान्त को स्वीकार करता है और न वह लाइनीज के पूर्व-स्थापित सांमजस्य के सिद्धान्त को मानता है, अपितु वह देकार्त के क्रिया-प्रतिक्रियावाद के सिद्धान्त को मान्यता देता है। इसी आधार पर वह यह मानता है कि तनावों से व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। इस बात का उल्लेख भी इस अध्याय में किया गया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जैनदर्शन यह मानता है कि चित्त या मन का अशांत होना ही तनाव है, जिसका शरीर पर प्रभाव पड़ता है। तनाव-प्रबंधन के मनोवैज्ञानिक अर्थ के आधार को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि दैहिक एवं मानसिक-प्रक्रियाओं का विचलन ही तनाव है। दैहिक स्तर पर होने वाले असामान्य परिवर्तन को तनाव कहा गया है, किन्तु तनावों का एक मानसिक-पक्ष भी है, वह मन के उत्पीड़न की अवस्था है। तनाव को एक दैहिक-संवेदना के रूप में देखा जा सकता है, किन्तु जैनदर्शन के अनुसार, तनाव का जन्म मन या चित्त की चंचलता या अस्थिरता या विकल्पयुक्तता से ही होता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की भूल यह है कि वे तनाव के दैहिक-पक्ष की असामान्य अवस्था को ही तनाव मानते हैं, किन्तु उसके पीछे रहे हुए मानसिक. हेतु को विस्मृत कर देते हैं, इसलिए इस अध्याय में तनाव-प्रबंधन के लिए उसके मानसिक एवं आध्यात्मिक-पक्ष पर भी विस्तार से विवेचन किया गया है। जैन धर्म दर्शन का यह मानना है कि मन की वृत्तियाँ और उनके दैहिक-प्रभाव का नाम ही तनाव है और इसके विपरीत, आत्मा या चेतना की निर्विकल्पदशा ही तनावमुक्ति है। वस्तुतः, जैनग्रन्थों में तनाव शब्द का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है, किन्तु उनमें इसके पर्यायवाची Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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