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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
जाएंगे?” तब भगवान ने कहा अगर अब काल करे, तो सर्वार्थसिद्ध देव बनेंगे। "यह सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ, इतने में देवदुंदुभी बजी, तब प्रभु ने कहा - मुनि प्रसन्नचंद्र केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध हो गए।" राजा ने आश्चर्य से इसका कारण पूछा, तब प्रभु ने कहा- "जब तुमने पहला प्रश्न किया, तब मुनि भावों से युद्ध कर रहा था, उसके मन में यह विचार चल रहा था कि मेरे मंत्रियों ने मेरे साथ विश्वासघात किया है। मैं उन सबका संहार कर दूंगा। अगर उस समय काल करते तो सातवीं नरक में जाते। जैसे ही उन्होंने अपना मुकुट ठीक करने के लिए हाथ उठाया तो विचार आया- ओहो ! मैं तो मुनि हूं और पश्चाताप के कारण उनके मन में विशुद्ध भाव आए, तब मैंने कहा कि वे सर्वार्थसिद्ध देव बनेंगे । पश्चाताप करते-करते उन्हें केवलज्ञान हो गया और वे सिद्ध हो गए और पंचम गति को प्राप्त हो गए। जैसे भाव होते हैं, वैसी ही लेश्या बनती है। जैनदर्शन में चित्तवृत्ति के बदलने के फलस्वरूप उस व्यक्ति की चेतना का स्तर और उसका व्यवहार भी बदल जाता है, अतः व्यक्ति के बंधन और मुक्ति का सारा खेल उसकी मानसिक स्थिति पर निर्भर होता है। देश, काल, परिस्थिति के साथ बदलता हुआ मनुष्य का चित्त भिन्न-भिन्न रूपों में सामने आता है और उसी से उसकी लेश्या का भी निर्धारण होता है। लेश्या की विशुद्धि के लिए भावों का शुद्ध होना आवश्यक है। लेश्या-विशुद्धि के लिए भावों के प्रति जागरूकता आवश्यक है | 815 :.
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जैनदर्शन में व्यक्ति के स्वभाव और व्यवहार को असन्तुलित बनाने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण लेश्या को माना जाता है। लेश्या द्रव्य - कर्म के साथ जुड़कर शुभ-अशुभ मनोभावों की संरचना करती है। अशुभ लेश्याओं में व्यक्ति का व्यक्तित्व अविकसित, असन्तुलित और तनावपूर्ण हो जाता है। उसका आचरण भी तदनुसार ही होता है। इसी कारण, व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् नहीं बन पाता है, उसकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है, कषाय की तीव्रता बढ़ जाती है। विवेकरहित और कषायसहित व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो देता है । वह तनाव की तीव्रता से ग्रस्त बन जाता है, जिसके परिणामस्वरूप उसकी भावना भी मलिन हो जाती है। अशुभ लेश्या मन को चंचल बना देती है। मन की चंचलता व्यक्ति को स्वार्थी बना देती है। फलतः उसमें समायोजन एवं परिस्थितियों के साथ समझौता करने की क्षमता क्षीण हो जाती है। मुमुक्षु
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लेश्या का मनोवैज्ञानिक अध्ययन, मुमुक्षु शान्ता जैन, पृ. 23
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