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________________ 302 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति विद्युत संचार से होती है, उसी प्रकार शरीर का मूल्य उसकी चेतना से है। चेतना के अभाव में शरीर मात्र एक शव होता है। अब प्रश्न उठता है कि चेतना का स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान् महावीर और गौतम के बीच हुए संवाद में मिलता है। गौतम पूछते हैं -"भगवन्! आत्मा क्या है और आत्मा का अर्थ या साध्य क्या है ? महावीर उत्तर देते हैं -“गौतम! आत्मा का स्वरूप 'समत्व' है और 'समत्व' को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्यं है और यह समत्व की साधना ही तनावमुक्ति की साधना है। यह बात न केवल दार्शनिकदृष्टि से सत्य है, अपितु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य सिद्ध होती है। फ्रायड नामक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक का कथन है -चैत्त-जीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोभ और तनाव को मिटाकर समत्व की स्थापना करता है। विक्षोभ, तनाव और मानसिक द्वन्द्वों से ऊपर उठकर शान्त, निर्द्वन्द्व मनःस्थिति को प्राप्त करना- यह हमारी स्वाभाविक अपेक्षा है और यही धर्म है। धर्म मूलतः समभाव की साधना है। यह समभाव की साधना ज्ञाता-द्रष्टाभाव या साक्षीभाव के बिना सम्भव नहीं होती और जब तक चित्त अथवा मन साक्षीभाव में रहता है, तब तक उसमें नवीन विकल्प नहीं आते हैं। विकल्पमुक्त शांत चित्त में तनाव उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि इच्छा, आकांक्षा और अपेक्षा-रूपी लहरें चित्त को अशांत बनाती हैं और अशांत चित्त में स्वस्वरूप का चिंतन नहीं होता है। जिस प्रकार पानी में यदि मिट्टी आदि गन्दगी मिली हो और हवा के झोंकों से लहरें उठ रही हों तो तल की वस्तु नहीं दिखाई देती है, उसी प्रकार जब तक चित्त या मन में चंचलता रहती है, तब तक साक्षीभाव की साधना, जो धर्म का मूल आधार है, सम्भव नहीं है। पुनः, धर्म के स्वस्वभाव की चर्चा करते हुए यही कहा जाएगा कि समता से ही साक्षीभाव उत्पन्न होता है, किन्तु मानवीय व्यवहार ममता पर आधारित होता है, जो तनाव का हेतु है। डॉ. सागरमल जैन ने समता को धर्म व ममता को अधर्म कहा है। जब सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि आदि की अनुकूल परिस्थितियों में मन में संतोष न हो, चाह और चिंता बनी रहे और प्रतिकूल स्थितियों में मन दुःख और पीड़ा से भर जाए, तो हमें समझ लेना चाहिए कि यह तनाव है, विभाव है और जो विभाव है, वह . 611 आयाए सामाइए आय सामाइस्स उट्ठ - भगवतीसूत्र धर्म का मर्म - डॉ. सागरमल जैन, पृ.20 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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