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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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व्यक्ति का स्व-स्वभाव में होना ही उसका धर्म है और इसी धर्म से तनावमुक्ति संभव है। गीता में कहा गया है - "स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः । परधर्म अर्थात् दूसरी वस्तु या दूसरे व्यक्ति के स्वभाव को इसलिए भयावह कहा गया, क्योंकि वह हमारे लिए स्वभाव न होकर विभाव होगा। जो विभाव है, वह धर्म न होकर अधर्म ही होगा । 807 प्रत्येक के लिए जो उसका निज-गुण है, स्व-स्वभाव है, वही धर्म है। स्व-स्वभाव से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिए धर्म नहीं, अधर्म ही होगा। अधर्म ही एक ऐसी विकृति है, जिससे आत्मा क्लेश पाता है", अर्थात् तनावयुक्त अवस्था में रहता है। धर्म ही एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है, ० विभाव रूपी कचरा नष्ट हो जाता है, आत्मा की विशुद्धि तनावमुक्त अवस्था में ही होती है, क्योंकि आत्मा स्व-स्वभाव में होने से विशुद्ध होती है। संसार में कोई भी मोहग्रस्त अवस्था निष्फल नहीं होती है, अर्थात् तनावरहित नहीं होती है, एकमात्र धर्म ही स्वस्वभाव रूप होने से बन्धन या तनाव का हेतु नहीं है।
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उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति का या वस्तु का स्वस्वभाव में होना धर्म है और विभाव में होना अधर्म है। अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य का धर्म क्या है? इसका स्पष्ट उत्तर है कि जो मनुष्य का स्वभाव होगा, वही मनुष्य का धर्म होगा। मनुष्य का स्वभाव मनुष्यता ही है, अतः मनुष्य का मानवीय गुण से युक्त होकर जीना ही धर्म है, जो विश्वशांति या तनावमुक्ति का हेतु है ।
पहले हमें यह विचार करना है कि एक मनुष्य के रूप में हम क्या हैं ? इसका समाधान करते हुए डॉ. सागरमल जैन लिखते हैंमानव–अस्तित्व द्विआयामी (Two dimensional) है। शरीर और चेतना - ये हमारे अस्तित्व के दो पक्ष हैं, किन्तु इसमें भी हमारे अस्तित्व का मूल आधार चेतना ही है। 12 जिस प्रकार विद्युत के तार का स्वयं में कोई मूल्य या महत्त्व नहीं होता है, उसका मूल्य या उपादेयता उसमें
607 गीता - 3/35
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धर्म का मर्म, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 14
एगे मरणे अंतिमसारीरियाणं स्थानांग- 1/1/36
एगा अहम्मपडिमा जं से आया परिकिलेसति - स्थानांग - 1/1/38
किरिया हि णत्थि अफला, धम्मो जदिं णिप्फलो परयो । प्रवचनसार - 2 / 24
612 धर्म का मर्म डॉ. सागरमल जैन, पृ. 15
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